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अपराधबोध

Updated: Jul 7

By Chanda Arya


सुभद्रा को घर वापस आये हुए दो घंटे हो गए थे, परन्तु वो मासूम सी आँखें उसका पीछा अभी भी कर रही थीं। उसका मन उदिग्न हो रहा था, वह उन चमकती आँखों से अपना ध्यान ही नहीं हटा पा रही थी। वह ड्रॉइंग रूम में आयी और सोफे पर बैठ गई। उसने मन बहलाने के लिए टेलीविज़न ऑन कर दिया, परन्तु उसका मन नहीं लगा। अब उसने एक पत्रिका उठा ली, और उसके पन्ने उलट - पलट कर देखने लगी। एक लेख पर उसकी दृष्टि थम गयी, जो भ्रूण हत्या पर आधारित था। उसका मन सिहर उठा उसने झट से पत्रिका बंद कर दी, और अपना सर सोफे के पीछे टिका दिया। आँखों के कोरों से पानी बह चला था, और बरसों पुरानी घटना पर मन केंद्रित हो गया हो गया। जिसके लिए वह आज भी अपने आप को दोषी मानती है। जिसका बोझ उसके मन को आज भी भारी किये रहता है। पूरी घटना चलचित्र की भांति उसके सामने घूमने लगी।

दरअसल आज वो अपनी मित्र निशि के साथ अनाथाश्रम गयी थी। वैसे वो वहां जाने की इच्छुक नहीं थी, किंतु अपनी मित्र के प्यार भरे मनुहार को टाल न सकी। उसकी मित्र उस अनाथाश्रम की केयर टेकर नियुक्त होकर यहाँ उसके शहर में आयी थी । अतः उसके बार - बार कहने पर सुभद्रा को जाना ही पड़ा। वहीं उसने उस नन्हे से बच्चे को देखा था, जो मात्र दो माह का था । पता नहीं, उसकी आँखों में क्या था कि सुभद्रा  का मन बेचैन हुआ जा रहा था। उसे अपने उस अजन्मे बच्चे की याद आ रही थी, जिसे वर्षों पूर्व परिस्थितियोंवश उसे इस दुनिया में आने से रोक देना पड़ा था। तब से यह अपराधबोध उसका पीछा ही नहीं छोड़ता था, किन्तु आज तो लग रहा था, कि वे दो आँखें उससे जवाब तलब  कर रही हों।  

सुभद्रा फिर यादों के गलियारे में खो गयी। उसी समय में पहुंच गयी, जब उसे पता चला था, कि वो फिर से माँ बनने वाली है। उसे तो प्रसन्न होना चाहिए था, किन्तु उसकी आँखों  के आगे अँधेरा  छा गया था। कारण कि अभी उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी, कि वह दो बच्चों के पालन - पोषण के साथ न्याय कर पाती। सारी जिम्मेदारी उसी पर तो थी। पति ने कभी आगे बढ़कर न साथ दिया था, न ही ऐसे समय ढाढस ही बंधाया,  जब वह उसकी तरफ नैतिक समर्थन के लिए देख रहे थी। बस  निर्णय लेना पड़ा कि इस दुनिया  में आकर बच्चा कष्ट उठाये, इससे बेहतर है कि वह आये  ही नहीं। फिर वो हो गया, जो नहीं होना चाहिए था। कई रातों की नींदें खोयी उसने अपनी और आज भी ये अपराधबोध उसे चैन से कहाँ जीने देता है।

मोबाइल की घंटी बजी। वह वर्तमान  में आ गयी। निशि का ही कॉल था। उसका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। वह कुछ देर तक मोबाइल को घूरती रही। अंत में उसने आँखें बंद कीं और एक गहरी लम्बी सांस ली।  आँखें खोलीं और कॉल उठाया। ठहरी हुई आत्मविश्वास से भरी आवाज़ में उसने कहा," निशि मैं तेरे साथ अनाथ आश्रम में काम करना चाहती हूँ। मैं  उन बच्चों के लिए कुछ करना चाहती हूँ, जिन्हें उनकी माँ ने पता नहीं किन मजबूरियों के कारण अपने से अलग किया होगा।" अब उसकी आँखें अपराधबोध से बोझिल नहीं थीं, बल्कि एक नयी आशा की किरण लिए चमक रही थीं।



By Chanda Arya



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