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Zimmedar Ki Zimmedariyan

By Kanika Kathuria



हम कागज के टुकड़े कमाते रह गए..

हम हर वक्त ज़रुरते निभाते रह गए!!


जब से होश सँभाला, हमने सिखा यही..

की जिंदगी ऐ ग़ालिब हैं निर्दयी बड़ी!!


रिश्ते, नाते, दोस्त सब बेइमानी हैं..

दुनिया दारी के सब झूठे अफसाने हैं!!


आधी जिंदगी निकल गई झूलसते हुए ..

खुद को भूल दूसरे का सोचते हुए !!


आज जब बोलता हैं कोई, की कब खुदगर्ज होंगे हम अपने लिए..

तो मन चाहता हैं कि पूछे ये उनसे की क्या उन्होनें खुदगर्ज होने के मौके दिए?

खुद गरज का "खुद" हमने कभी सुना और जाना नहीं ..

सबकी "गरज" को पूरा कैसे करें बस सिखा हैं यही !!



अस्तित्व हमारा इस दुनिया ने कभी बनने नहीं दिया..

बस पैसा कमाने वाली मशीन हमे बना दिया!!


असल में क्या चाहत थी अपनी जिंदगी से,

वो बस एक सपना समझ के भूल गए,

फिर भी हम दुख दर्द में साथ खड़े रहे ऐसी दुनिया के,

सब माफ कर, अपने फ़र्ज को तेय करते चले !!


थक गए हैं अब सबकी झूठी शान और नकली चमक से भरी इच्छा को पूरा करते हुए..

ले गई जो हम को दूर हमारी जीवन जीने के बुनियादी आशा और उम्मीद से !!


ला खड़ा कर रखा हैं आज दुनिया ने ऐसे मोड पे..

ना मुंह मोड़ सकते अपनी ज़िम्मेदारियों से !!


बच्ची हुई चलती सांस का बस अब कहना हैं ये..

ना मौका दे किसी को कोई शिकायोते के !!

करते चले खवायीशे सबकी पूरी,

ना रहे किसी के मन मे कोइ आस अधुरी!!


अब तो बस खुदा के आगे करते हैं दुआ हर रोज

जो सुख तूने जीते हुए ना दिया वो भर के रख देना मेरी झोली में, तेरे सच्चे घर आने पर!


By Kanika Kathuria



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