Shaher Zehrile
- Hashtag Kalakar
- May 9, 2023
- 1 min read
By Dharmendra Bharti
नुक्कड़ के नल से खून है टपकता,
प्यासा ज़मीर है जुनून है तरसता,
फीकी चाय में धोखा घुला है,
घर की बुनियाद में लालच मिला है ।
सड़ रहे है जिस्म चमकते ये चेहरे,
गारे की दीवारों में कीड़ों के पहरे,
नोंच डाले ये ऐसे है इनके पंजे,
खा जाए सीना ऐसे शिकंजे,
पत्थर पूज ये मारे हंसा,
हवसी और कपटी है इनकी मंशा,
रात का चांद भी आग उगलता,
भीतर का बच्चा हवा को तरसता,
कुत्ते सी हालात है दुनिया की ऐसी,
कहीं पर है मुतता कहीं पर है भोंकता,
लाचारी ऐसी के नजर ना मिलाऊं,
अपने ही आइए को तोड़ता मैं जाऊं,
लोग नहीं है ये भीड़ में है कीड़े,
मन करता है सबको कुचलता मैं जाऊं ।
लोहे के सरियो को बूढ़ा वो खींचे,
तेरे मकां को कोई और क्यों सींचे,
पानी पसीना लहू तक समान है ,
ज़हरीले शहरों में मुक्ति शमशान है ।
कोड़े से पीटो जला दो तुम मुझको,
कर लो दो हाथ जो मर्जी है जिसको,
रद्दी जैसी है दिमागी खयाली,
खाली पड़ी है जुबां की प्याली,
इनके नखरों में खतरे बहुत है ।
लील जाए तुमको पैंतरे बहुत है ।
नंगी धरती जब लहू से है सनती,
हुकूमत भी फिर रस्ते बदलती ,
कोख में फल और मां है बिलखती,
ये साली दुनिया ऐसे नहीं चलती ।
जीना है तो मरना होगा रोजाना,
तय है सबका जाने का ठिकाना,
फिर भी इनकी लार काबू में नहीं है,
थाली में परोसो इनको कोई खाना....
कांचों के घरों में किस्से नुकीले,
नरकसेहैबढ़करशहरयेज़हरीले……
By Dharmendra Bharti

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