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Disguise
By Rashmi Gupta
रात के अंधेरे में देखा जब सामने की जगमगाती खिड़कियों को
तो दिल में इक सवाल उठा, रहते हैं जो इन घरों में
हैं जिंदा वो दिल से या यूंही बस वक्त गुजार रहे हैं,
जिंदा होने का जैसे फ़र्ज़ निभा रहे हैं।
दिन के उजाले में देखा जब लोगों को मुस्कुराते
तो दिल ने फिर हमसे ये पूछा, क्या खुश हैं ये सब दिल से
या यूहीं दर्दों को अपनी मुस्कान के पीछे छुपाए फिरते हैं।
मुस्कुराने का जैसे कोई कर्ज़ उतार रहे हैं।
दुनिया के शोर में देखा जब खामोश कुछ लोगों को
तो दिल ने फिर सवाल किया, क्या ख़ामोशी भा गई है इनको
या सुन के समझ के चुप हैं यूंही
अंदर से जैसे चिल्ला के अपने होने का एहसास करा रहे हैं।
कोई हाथ बड़ा जब मदद के लिए यूंही
तो दिल ने फिर इक बार पूछा, क्या सच में है मदद फितरत इनकी
या यूंही बस करीब आने का बहाना ढूंढ रहे हैं,
फायदा उठाने का जैसे कोई मक्सद लिए आए हैं।
हर बार, जितनी बार इस दिल ने किए सवाल यूंही हमसे
हम समझ ना पाए कि क्या जवाब दें इसे।
है दुनिया ये बेदर्द, बेगैरत ऐ दिल रहना बच के
कि आईने में संवरने वाले अक्सर मुखोटों के पीछे छुपाया किए हैं हकीकत ऐसी जो तुम पहचान न पाओगे
और फिर से धोखा खाओगे।
By Rashmi Gupta