By Neelu Singh
भूलने की आदत हमें ऐसी लगी, के आज अपनी ही पहचान भूल बैठे हैं।
गुज़रते थे रोज़ जिन गलियों से, आज उनके ही निशान भूल बैठे हैं।
कभी लेते थे उधार जिन दोस्तों से, आज उनके ही नाम भूल बैठे हैं।
जिसकी छत पर गुज़रीं, कई सुबह-ओ-शाम, गली का वो पुराना मकान भूल बैठे हैं।
चाय की चुस्कीयों में भीगी दोपहरें, जहां ख़ास बातें थीं बहुत आम, भूल बैठे हैं।
सुकून की नींद में बुनते थे सपने जहां, वो सितारों भरा आसमाँ भूल बैठ हैं।
कहते थे जिसे अपना चाँद, उस चाँद पर का गुमान भूल बैठे हैं। करते थे रोज़ तेरा इंतज़ार जहां, चौराहे की वो दुकान भूल बैठे हैं। जलती थी चिंगारी कभी हमारे अंदर भी, जो हवा दे उसे, वो तूफ़ान भूल बैठे हैं। जिन हौंसलों पर चल कर मंज़िलें मिली, उन रास्तों की थकान भूल बैठे हैं। कभी-कभी तो दोस्तों लगता है की, हम अपना ईमान भूल बैठे हैं। जाने उस ख़ुदा की, क्या हिदायत थी हमें, हम तो उसका भी फ़रमान भूल बैठे हैं। गुज़रते थे रोज़ जिन गलियों से, आज उनके ही निशान भूल बैठे हैं। भूलने की आदत हमें ऐसी लगी, के आज अपनी ही पहचान भूल बैठे हैं।
By Neelu Singh
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