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Bachpan

By Deepshikha


डायटिंग फिटनेस के दौर में, कुल्फी और चॉकलेट के लिए ललचाता बचपन ।

कभी फुव्वार्रों पर चढ कर पानी के छल्ले उड़ाता बचपन,

हमें याद भी नहीं अब कि कैसे बनाया करते थे,

जहाज उड़ाता तो कभी कागज की कश्तियां तैराता बचपन ।


उस पार कोई दिखता तो नहीं,

पर हम घड़ी घड़ी इंतजार में हैं,

खुशनसीब वो है या हम,

जो अब तक उसके प्यार में हैं,

बेचैन हैं, बेजार हैं, तो कभी मोहब्बत में बीमार हैं,

और इस पर इत्मीनान से बैठ कर रेत के घर बनाता है बचपन।


इक अधूरी मुलाकात दिल को खलती तो है,

पर अब ये एक बात अधूरी ही सही,

नजर फोन से ऊपर उठा कर तो देखो,

ज़िन्दगी इतनी भी बुरी नहीं,

ये भी क्या की हर इक बात में लॉजिक खोजते रहते हैं,

और यहां ज़रा ज़रा सी बात पर हैरान होता बचपन।



हम खेल से पहले , मैदान की लंबाई नापते हैं,

हुनर छोड़, हार जीत की इकाई आंकते हैं,

इसे पता नहीं कि क्रिकेट फुटबाल किस मौसी को कहते हैं,

बड़ी वाली गेंद से, छोटे छोटे छक्के मारता बचपन ।


जज्बात सहेज कर रखें हैं, पर मन तो आज़ाद है,

ज़रा चख कर देखो मियां, बूंदों में क्या स्वाद है,

चाय का कप हाथ में लिए, शीशे के अंदर से निहारते हो जिसे,

हां वही बिंदास बारिशों में नहाता बचपन।



अब शरारत शरारत करते हैं, खुद क्या कम शरारत करते थे,

दादी की गोद से निकलकर , नाना के कंधो पर चढ जाते थे,

अब कहां सोते वक़्त वो तारों को छत नसीब होती है।

जो तब सुना करता था, अब वहीं कहानियां सुनाता बचपन।


चलती हुई रेलगाड़ी में, खिड़की से बाहर झांकता बचपन।

भुला बिसरा सा पर कभी कभी याद आता बचपन।


By Deepshikha



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