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Beti
By Khushboo Singhal
बेटा बेटी में फ़र्क कोई न
हर कोई आज ये कहता है
फिर रात को अकेले बाहर जाने में
आज भी मन में डर ये कैसा है
जब-जब अस्मिता उसकी तार-तार हुई
समाज ने बेटी को ही कोसा है
कभी कहते हैं कपड़े छोटे क्यों पहने
कभी कहते रात को बाहर क्यों जाना है
जिनके बेटे हैं कोई उनसे भी तो पूछे
क्यों नहीं उन्होंने अपने बेटों को रोका है
संस्कारों में कमी तो उनके थी
तभी तो उनके बेटों ने किसी की बेटी को नोचा है
बेटा बेटी में फर्क कोई न
हर कोई आज ये कहता है
फिर भी बेटी आज भी पराया धन क्यों है
हर बेटी का दिल ये कहता है
दो कुलों की शान है बेटी
हर किसी ने उसे ये कह के लूटा है
जिस घर में वो पली बढ़ी है
अक्सर पल में वो घर छूटा है
जिस घर वो ब्याह के जाए
वहां बात- बात पर हर कोई रूठा है
बेटी किसी माँ बाप को बुरी नहीं लगती
डर लगता उसकी किस्मत से है
जिन नाजों से पाला उन्होंने
दूजा घर ऐसा मिलेगा क्या
डरते हैं कोई उनकी बेटी को
झूठी शान के लिए रौंद न दे
कहते हैं समाज बदल रहा है
ये ओर कुछ नहीं बस एक धोखा है
कहने को तो बहुत कुछ अब भी बाकी है
बस इतना कह के ही आज मैंने खुद को रोका है।
By Khushboo Singhal