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AKS

By Vivek Upadhyay


जब जीवन में कोई ऐसा मिल जाए जिसको देख कर लगे की वो अक्स हैं आपका तब अंदर से आवाज़ आती है । यही तो है मेरा अक्स जिसको ढूंढा मैंने जिसको चाहा मैंने जिसको माँगा मैंने हर पल । ये कविता इसी खोज को दर्शाती है ।ये ऐसे एक व्यक्ति की एक प्रेमी की दिल की आवाज़ है जो शब्दों में बयान की गयी है । वैसे तो इसकी अनुभूति इसके विवरण से कहीं ज़ादा गहराईयों में जाती है पर शब्दों के मोती इन गहराईयों के एहसासों को मोतियों की तरह एक सुन्दर माला में पिरो देते हैं ।


अक्स

सोचा लिखूं कुछ तुम्हारी खूबसूरती पे ,

शब्द और एहसास पिरो के मोती से ,

तुम्हारी ये आँखें जैसे जुगनू टिमटिमाये ,

रात के अँधेरे में जगमगाती रौशनी के साये ,

तुम्हारी हंसी में हैं वो कातिल अदाएं ,

तुम जो हंस दो तो हज़ारों दिए जल जाएँ ,


आस्मां के सब रंग , ये चंदा ये सितारे,

देखने लगे हैं सब अब तुमको ही सारे,


चलती हो मानो जंगल में शेरनी की तरह ,

देखे जो प्यार से लगती हो सुन्दर मोरनी की तरह,


तुम्हारा चाँद सा ये चेहरा बहोत अपना सा लगता है,

दुनिया की भीड़ में एक हसीन सपना सा लगता है,

रहती हो मेरे तुम मेरे इतना करीब ,

मेरे दिल में है जो मंदिर उसमे रखी इबादत के लिए वो तुम्हारी ही एक तस्वीर,





तुम्हारी तारीफों में लिख सकता हूँ अफ़साने हज़ार ,

ये ज़िन्दगी कम पड़ जायेगी जो रखने लगे हम तुम्हारे लिए अपने प्यार का हिसाब


तुम अक्स हो मेरा , या मेरा जूनून ,

पानी में मेरी ही परछाई या मेरी रगों में बेहता खून ,

तुमको ही बुनता था ख़यालों में अपने ,

तुम हो जवाब जो मिला हर सवालों में अपने,

ये हंसी तुम्हारी सपनो में देखि है पहले ,

ये आवाज़ भी तुम्हारी सुनी सुनाई लगती है पहले ,

आवाज़ तुम्हारी है बिलकुल रूहानी,

जिसमे है प्यार और एक मीठी मनमानी ,

नीले रंग का अम्बर हो तुम जैसे कोई सुन्दर पारी आसमानी ,


हंसती हो तो इतनी नूरानी जैसे की बरसे संग बिजली और पानी ,

मानो चंचल बरखा की भीगी महेक्ति रात तूफानी ,


तुम हो मेरी हमसफ़र जिसे ढूंढा हर घरी है मैंने ,

हाथ की लकीरों को भी तुम्हारे ही जैसे बुना है मैंने ,

न कोई अरमान, न कोई ख्वाइश और रही अब दिल में , जब लगे हैं हर पल तुमसे मिलने ,

हो गए सब ज़ज़्बात बयान जैसे जन्नत में लगें फूल हो खिलने,

छाती है बद्री , आये सावन की घटा फुहार ,

जैसे फूलों की माला और हर पल गुलज़ार ,

तुम्हारे आने की ख़ुशी में होते हैं ये आसार ,

नाचती है बदरी कर के सोलह श्रृंगार ,

जैसे लगे की सीखी ये अदाएं बदरी ने तुझसे ही मेरे यार ✨💞🌈🌧


By Vivek Upadhyay




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