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सूर्यपुत्र कर्ण

By Divy Kankarwal


(1)कुंती का ज्येष्ठ पुत्र सूर्य का वो अंश था,

पैदा हुआ जिसमे वो क्षत्रियों का वंश था,

सूतपुत्र कहते उसे पर शोणित से क्षत्रिय था,

रथ हांकने से अधिक धनवा उसको प्रिय था,

कवच कुंडल के साथ था सूर्य के तेज सा कपाल,

माधव के जैसे वो भी था दो माताओं का लाल।


(2)द्रोण और परशुराम से शस्त्र शिक्षा लेकर,

कर्ण आया राजकुल के समक्ष अपना धनुष लेकर,

आप कैसे गुरु द्रोण अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ बता सकते हो,

यदि है इतना विश्वास तो भुजदंडों को मेरे आज़मा सकते हो,

अर्जुन है श्रेष्ठ यदि तो आह्वाहन मेरा स्वीकार करे,

मेरी चुनौती का भरी सभा में शरों से निस्तार करे।


(3)अर्जुन कर्ण की प्रतियोगिता को सहमति न मिल पाई,

द्रोण का घमंड टूटता सभा नहीं देख पाई,

दोनों धनुर्धरों की आँखों में उमड़ रहा ज्वाला था

धर्मयुद्ध में दोनों भ्राताओं का सामना होने वाला था।


(4)नियति ने रचा खेल फिर समय युद्ध का आया,

धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में योद्धाओं ने डेरा लगाया,

अर्जुन को तो अपना शत्रु कर्ण मानता आया,

पांडव हैं अनुज तुम्हारे तब कुंती ने बतलाया।





(5)कवच कुंडल तो मांग लिए देवराज ने हाथ फैलाकर,

अब क्या मांगना चाहती है माता मेरे शिविर में आकर,

पुत्र होकर भी आपका क्षीर नहीं मैंने पाया,

ज्येष्ठ पांडव होकर भी में सूतपुत्र कहलाया।


(6)मांगने आई हैं आप तो अपना पुत्र धर्म निभाउंगा,

अर्जुन के प्राण तो नहीं दे सकता पर किसी पांडव का रक्त नहीं बहाऊंगा,

बंदीबनाकर पांडवों को दुर्योधन को रण जितवाऊंगा,

और भला कैसे उसकी मित्रता का मोल चुकाऊंगा।


(7)रणभेरी बज उठी शस्त्र योद्धाओं के तने थे,

माधव थे सारथि पार्थ के साथ अंजनेय थे,

कुंती के वचनों को कर्ण ने तूणीर में पाया,

शल्य को बना सारथि राधेय केवल भुजबल लेकर आया।


(8)कौरवों ने जब अंगेश को सेनापति बनाया,

मानवों के युद्ध में जैसे सूर्य लड़ने आया,

पांडवों का खेमा कर्ण को यमराज सा पाता,

राधेय की विशिख वृष्टि से सूर्य भी ढक जाता।


(9)अरे शल्य जरा रथ को पार्थ की ओर बढ़ाओ,

अर्जुन का वध मेरे हाथों आज देखते जाओ,

बीच में आए महादेव तो उन्हें भी आज हराऊंगा,

दुर्योधन को आज ही में विजय मुकुट पहनाऊंगा।





(10)कर्ण के रणकौशल से धर्मराज भी पार न पा सके,

भीम,नकुल,सहदेव भी नौसिखिये से जान पड़े,

युधिष्ठिर को बंदी बना लगा सकता था युद्ध पर विराम,

पर अर्जुन को जीते बिना कैसे करता कर्ण विश्राम।


(11)अर्जुन ने ललकारा हे अंगेश मेरे सम्मुख आओ,

मेरे भ्राताओं से लड़ लिए मेरे गांडीव को भी आज़माओ,

याद है वध अभिमन्यु का और पांचाली का अपमान,

करके वध तुम्हारा मैं तोडूंगा दुर्योधन का अभिमान।


(12)कुरुक्षेत्र में फिर लगी काल की ज्वाला भड़कने,

दोनों योद्धाओं के तीर लगे आकाश में तड़कने,

पार्थ झेल रहा था पांचाली के अपमान का दंश,

देवता लड़ता देख रहे सूर्य और इंद्र का अंश।


(13)तभी भृगुनन्दन का श्राप कर्ण के आड़े आया,

कर्ण के स्यन्दन का पहिया दलदल में जा समाया,

राधेय उतरा रथ से पहिया वापस उठाने को,

अर्जुन ने भी छोड़ा गांडीव युद्ध मर्यादा बचने को।


(14)केशव ने ललकारा हे पार्थ प्रत्यंचा तुम खींचो,

अरिमुण्ड मांग रही धरती भृकुटि अपनी भींचो,

बालक अभिमन्यु का वध करने भी तो अधर्म है,

धर्म को जितवाना समर यही तुम्हारा क्षत्रिय धर्म है।




(15)कृष्णा का आदेश पा कौन्तेय ने शर का संधान किया,

निशस्त्र पैदल कर्ण पर तब अर्जुन ने वार किया,

रंग लिए था अग्रज के रक्त से अर्जुन ने हाथों को,

अश्रु मोती घेर चुके थे माधव की भी आँखों को।


(16)कर्ण था क्षत्रिय सच्चा ,धीर, वीर और ज्ञानी

पाकर जिसको आर्यव्रत की धरा हुई अभिमानी,

धर्म निभाते हुए कर्ण धर्म से ही हार गया,

अंशसूर्यकापुनःजाकर सूर्य में हीसमा गया।


By Divy Kankarwal




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