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स्वेतलाना

By Rajeshwari Patel


Svetlana flower valley - उस बेहद खूबसूरत दुनिया के प्रवेश द्वार पर सुवर्णरंग से रोमन शैली में लिखा हुआ एक नाम, जिसे देखते ही लगता है कि अब मैं किसी सपनों की नगरी मैं विहार करने जा रही हूँ। शहेर से दूर, टोल प्लाजा को पार करके सिक्स लाइन नेशनल हाई-वे से दाहिनी ओर एक मार्ग पडता है। थोडा सा आगे जाते ही लगने लगता है, जैसे हमने घने जंगल में प्रवेश कर लिया हो और एक मोड़ पर आपके साथ बहने लगती है मालिनी नदी। नदी की दूसरी ओर लहराते है हरेभरे खेत। फिर बायें कि ओर मुड़ते ही मिट्टी का पथ हारबद्ध पुष्पवेली के साथ आपका स्वागत करने लगता है और तुरन्त सामने दिखाई देता है दोनों ओर रंग-रंग के पुष्प लहरातें बागान के बीच काष्ठ से बना एक सुंदर घर। मानो जैसे एक बहोत बड़ा सपनों का काष्ठमहल हो। हिमालय पर्वत की फूलों की घाटी जैसी लगनेवाली इस जगह का नाम है स्वेतलाना फ्लावर वेली। यहाँ हम जैसी बहुत सारी चिड़ियाँ, तोते, भँवरें, रंग-बिरंगी तितलियाँ और न जाने कितने पंखी पँख फैलाकर इन फूलों की दुनिया में उड़ते रहते है।

स्वेतलाना नाम सुनते ही वो मेरी नजर के सामने आ जाती है। फूल-गुलाबी वस्त्रों में नृत्य करती, श्वेतपद्म जैसी सुकोमल कन्या, जिसकी मुस्कान से हजारों तितलियाँ रंग-बिरंगी पँख हवा में लहराती हुई खूले आकाश में उड़ने लगती है। हिमपर्वतों के पीछे उगते सूर्य के तेजस्वी किरणें, जैसे पंखी के चहचहाट सुनकर नाचने लगती है, वैसा ही लगता जब वह हवा में कमलपुष्प के दंड जैसी अपनी बाहें फैलाकर नाचने लगती है। वह है स्वेतलाना, इस काष्ठभवन के अति धनवान मालिक की एकलौती बेटी। पर सच तो यह है कि वो मालिक की बेटी से कई अधिक है मालकिन के मन की प्रतिकृति।



मालकिन का नाम है सुनीधि। मालिक उन्हें नीधि कहकर ही पुकारते है। उन्हें पढ़ने का शोख बड़ा गजब का है। एक कमरा किताबों से भरा है। लगता है जैसे किसी बड़े ग्रंथालय में प्रवेश कर लिया हो। मालकिन जरा जोर से पढ़ती है, लगता है जैसे वह हम सबको कहनियाँ सुनाती हो। मैंने भी तो उनसे न जाने कितनी कविता और कहानियाँ सुनी है। रशियन नवलकथा से ही उन्होंने अपनी बेटी का नाम रखा है। स्लेतलाना प्राचीन स्लाव मूल का एक रुसी नाम है। जो वासिली जुकावस्की के गाथागीत स्वेतलाना से लोकप्रिय हुआ। इसके अलावा दूसरा शोख उन्हें है नृत्य का। उन्होंने इटली में रहकर ओपेरा डान्स की शिक्षा ली है। स्वेतलाना उनके नृत्यकार मन का मूर्तिमंत रूप है। मुझे स्लेतलाना को नृत्य करते हुए, गाते हुए, मुस्कुराते हुए देखना बहुत अच्छा लगता है। मैं उसके आसपास उड़ती हूँ, बैठती हूँ। उसे भी मेरी पूछ के नीचे का नीला रंग बहुत पसंद है।

मालिक का फूलों का बहोत बड़ा व्यापार है। उन्होंने अपने पिता से मिली जमीन पर फूलों की खेती करने का काम शुरू किया था। अब दूर-दूर तक की जमीन उन्होंने खरीद ली है और न जाने कितने प्रकार के फूल यहाँ उगाये जाते है, लेकिन सबसे ज्यादा गुबाल की खेती होती है। आप जिस रंग का चाहों उस रंग का गुलाब यहाँ देख सकते है। शहर में एक कंपनी है, जहाँ फूल ले जाये जाते है और वहाँ से ही ओर्डर के हिसाब से सप्लाय किये जाते है। मालिक दिनभर कंपनी पर ही रहते है और विनयचाचा कई साल से उनके साथ फूलों के छोड़ लगाने से लेकर चुँटाई तक का काम देखते हैं। शहर और आसपास के गाँव से कई सारे लोग इस काम में लगे हुए है।

कुछ वख्त पहले ही राम नाम के एक लड़के को मालिकने काम पर रखा है। मालिक कहते हैं कि उसके हाथ में जादू है। फूलों की यूँ सजावट करता है कि लोग देखते ही रह जाये। बहुत बड़े घर से विवाह प्रसंग पर सजावट का काम मिला था और रामने वहाँ काम करके मालिक का दिल जीत लिया था। राम को जो काम दिया जाता था, उस के लिए वह खूद फूलों की पसंदगी करने बागान में आता-जाता था। अपनी पसंदगी के फूल मिल जाने पर वह खूशी में छलांग लगाता और गाना गाने लगता था। मालकिन उसे देखकर मुश्कुराने लगती थी। कभी-कभी वह खूद राम को गाना गाने के लिए कहती थी। कभी लिखने लगती तो कभी गाना रेकोर्ड भी कर लेती थी। राम को देखकर मालिकन को अपना बचपन याद आ जाता था। उनका बचपन गाँव में बीता है। अब उनकी जिन्दगी बडी पार्टी, बड़े बड़े कार्यक्रम और बड़े लोगो के बीच बीतती है लेकिन राम को देखकर अपने उछल-कूदवाले दिन उन्हें याद आ जाते है।

एक दिन साम को मालकिन अपनी बेटी के साथ शहर के रंगभवन में कथक नृत्य का कार्यक्रम देखने जानेवाली थी और उस दिन उनकी गाडी के ड्रायवर की तबियत भी खराब थी। तब उन्होंने राम को अपने साथ लिया। राम ने उस दिन पहलीबार स्वेतलाना को देखा। मुझे अच्छी तरह याद है कि उसे देखते ही वह अपने गाने की धून भूल गया था। दूसरे दिन स्वेतलानाने जब सुबहा उठकर खिड़की खोली तो मैंने देखी थी उसकी रेशम सी जूल्फों के बीच दिखाई देते गाल पर छायी हिई लाली। सूरज की हल्की धूप में वह लाल-गुलाबी रंग देखकर लगता था मानो जैसे बर्फिली पहाड़ियो के बीच, नील सरोवर में कोई सुवर्ण रंग का कमल खिला हो।

राम एक ही दिन में तीन जिन्दगीयाँ देखता था। स्वेतलाना वेली के गुलाब के बागानों में काम करते हुए, बड़े बड़े घर की शादी-विवाह में सुशोभन करते हुए, काष्ठमहल में फूलों की सजावट करते हुए वो स्वर्ग के देवी-देवतोओं जैसी बहोत ही वैभवी जिन्दगी देखता था। जहाँ थे सुंदर वस्त्र आभूषण, लजीज खाना-पीना, जरुरत से कई ज्यादा चीजें, वैभवी भवन और खूले आकाश जितनी जगह थी। यहाँ लोग हल्का मुश्कुराते थे, धीरे से और अदब ले बात करते थे, आराम से खाना खाते थे और अपने बच्चों को किसी राजकुमार या राजकुमारी जैसा जीवन देने का प्रयास करते थे।

राम के घर और आसपास में मध्यम वर्ग का जीवन था जो अपनी साधारण जरुरत के हिसाब से गुजारा कर लेते हैं। सब काम करते थे। सोच-सोचकर खर्च करते हैं, छोटी सी जगह में अपने जीवन को अच्छे से सवारने का प्रयत्न करते हैं। उनके सारें काम और फैसलें में एक हिसाब लगाया जाता हैं। एक और दुनिया में भी उसका आना जाना रहता था। राम के साथ सहायक के रूप में जीन लोगो को मालिकने रखा था, उनमें से ज्यादातर उसी दुनिया से आते है। वह दिन में मजदुरी करते है, रात में अपनी पत्नी के साथ झगड़ा करते, झोपड़पट्टी में रहते, पीट-पीटकर बड़े हुए बच्चों की गेंग जहाँ शोर करती रहती है। पानी के लिए लगी लाइन में औरते झघडती रहती हैं। जोर-जोर से झघड़ा करना, जोरों से हसना, गुस्से से पीटना, छोटी सी जगा में बहुत सारे लोगो का रहना और लगता है जैसे जिन्दगी से रूठे हुए लोग घुम रहे है। उस दुनिया में वह सुबह-साम लोगो को गाडी में लेने और छोडने जाता था। तीनों दुनिया में स्वर्ग, पृथ्वी और पाताललोक जीतना अंतर था।

राम हर जगा के गाने सुनता था और गाता था। कभी भवाई देखके आता, कभी रामलीला देख के आता तो कभी राजा हरिश्चन्द्र-तारामती के आख्यान देखकर आता था। राम के मन पर इन लोकनाटक और लोकनृत्य के गाने की धून सवार रहती थी। मालकिन के साथ बात करते कभी रंगला-रंगली के संवाद शुरू कर देता था। मालकिन भी खूलकर हसने लग पड़ती थी। स्वेतलाना परदों के पीछे से इन बातों को सुनने लगी और एक ऐसा दुनिया की कल्पना करने लगी, जो उसने देखी ही नहीं।

एक दिन उसने धीरे से राम से कहा कि वह भी लोकमंडली में होनेवाले आख्यान और नृत्य देखना चाहती है। राम स्वेतलाना की मृगशावक जैसी मासूम आँखो में देखता ही रह गया। वह भला उसे मना कैसे कर सकता है, लेकिन मालकिन की परवानगी के बीना उसे एक कदम तक भी क्यहीं ले जाने को कोई सोच भी नहीं सकता था। और फिर मालकिन भी स्वेतलाना को कभी आम लोगों के बीच जाने की इजाजत कैसे देगी। सुंदर कमलपुष्पों को तो ईश्वर भी कहीं विशाल पर्वतों के बीच गाढ़ अरण्य में, दुनियाँ की नजरों से दूर सरोवरों में उगाते है। एक ऐसी जगह जहाँ जनसाधारण का जाना बहुत मुश्कील होता है। तो फिर मालकिन स्वेतलाना को कैसे क्यहीं जाने देती, जहाँ उस के बैठने के लिए विशेष सुविधाएँ और आरक्षण न हो। जहाँ कोई भी धक्का-मुक्की करके आ-जा सकता हो। मालकिन कभी हा नहीं कहेंगी।

अब मार्ग स्वयं स्वेतलानाने ही निकाल लिया। हम सब अपनें घोसलें में जाकर सो जाते थे, तब घीरे से स्वेतलाना के कमरे का पीछे का दरवाजा खूलता था। वह अपने जूते हाथ में उठाकर चोरकदमों से गुजरती थी, पर उसके जाने से उन सुंदर वस्त्रो पर लगे चंदन की खुश्बू मेरे घोसलें तक आती थी। मालिनी नदी की तरह बहती रात जब ढ़लने आती थी तब फिर से वही खुश्बू मेरे घोसलें को लहलहाती थी। दिन में राम जब मालकिन के सामने रामलीला या किसी आख्यान का गीत गाता था तब कमरें में स्वेतलाना झुमझुमकर नाचती थी। उसके कमरे के सामने के मधुमालती के वेली में ही मेरा घोसला है। स्वेतलाना को देखकर मेरे नन्हें बच्चें भी चहकर नाचने-कूदने लगते है और घोसला रंगमंच बन जाता था।

रंगमंच में जब परदा खूलता है तो लाइट होती है। संगीत गूंजता है। पदताल से मंच का हृदय धड़कने लगता है। रंग-बिरंगी वस्त्र के साथ उसका मन तरंगित होने लगता है। वीर, अद्भूत, शृंगार, हास आदि रस-भाव की लहरों में रंगभवन खूशियों से भर जाता है। पर यह सब तो कुछदेर का खेल होता है। जब समय समाप्त हो जाता है तो फिर से परदा गिर जाता है। प्रकाश, ध्वनि सब क्यहीं खो जाते है। अँधेरा रंगभवन को घेर लेता है। रंगमंच उन किरदारों की फिर से प्रतीक्षा करने लगता है। कुर्शियाँ चूप हो जाती है। बाहर की कोई आवाज अंदर नहीं आती और अंदर की आवाज किसी को सुनाई नहीं देती। स्वेतलाना में लोकरंग घुलमिल रहा था और मालकिन की नजर से वह रंग ज्यादा दिन छूप न सका और स्वेतलाना वेली उस रंगमंच की तरह सूनी पड़ गई। घोसले चंदन की वह भीनी खुश्बू के लिए तरसने लगा।

मालकिनने स्वेतलाना को कुछ भी नहीं कहाँ, लेकिन राम को एक ही ईशारे में न जाने क्या कह दिया की वह फिर इस दुनिया में कभी वापस ही नहीं आया। एक दिन मैंने ही राम के घर की ओर उडान भर ली। अकेले अकेले वह बड़बड़ा रहा था- “मालकिन ठीक ही तो कहती है। मैं स्वेतलाना को वो जिन्दगी कभी नहीं दे सकता, जिसमें वह जी रही है। मेरे घर में उतनी जगा ही कहाँ है जहाँ वह खूलकर नाच सके। एक पंखी अपनी पाँख समेटे कब तक जी सकता है? मैं उससे उसका आकाश कैसे छिन सकता हूँ? सूर्यप्रकाश पृथ्वी को छूने लगे तब सरोवर कमल में ही अपनी पत्रदल को अंगड़ाई लेते हुए खोलने लगता है। उसे सरोवर से दूर कर दिया जाये तो उस की पंखूडियाँ धीरे धीरे मृत होने लगेगी। वह कभी नवपल्लवित नहीं हो सकता।” मैं उसे कैसे बताउँ की यह कमल तो वही उसी झील में होते हुए भी मुर्जा रहा है। मैं कई दिनों तक यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ उड़ती रही, किन्तु मेरे उड़ने से क्या?

सुना है एक रात राम घर से निकल गया और चलते चलते वह कहाँ चला गया कोई नहीं जान पाया। मेरे बच्चें भी बड़े हो गये थे और अपने आप उड़ने लगे, अपने अलग घोसला करने लगे थे। हम पंखी अपने बच्चों की उड़ान को रोक नहीं लगाते। मैंने भी यहाँ रुकना नहीं चाहा। स्वेतलाना अब सिर्फ आकाश की ओर ही देखती है। हमारी ओर वह एक नज़र नहीं डालती। मुजे कुछ अच्छा ही नहीं लगता था और मैंने भी उड़ान भर ली बद्रीनाथ की दिशा में। मेरी बूढ़ी आँखो को न जाने क्या हो गया है यहाँ आकर? मैं हररोज सुबह उठते ही देखती हूँ कि राम एक खूबसूरत कमल को घोड़े पर बिठाकर बद्रीनाथ के मंदिर की ओर ले जा रहा है। उस कमल पर से फूल-गुलाबी दुपट्टा ठंड़ी हवा में दूर दूर तक लहरा रहाँ है। एक दिन बहुत जोरों से हवा चली और उस कमल पर वह दुपट्टा हवा के साथ उड़ लिया और रेशमी केश लहराने लगे, भीगे चंदन की खुश्बू से पहाडियाँ महेंकने लगी। वही मृगशावक जैसी आँखे, कमल जैसा श्वेत रंग, वही मुश्कान, वही स्वेतलाना...


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