'रवीद्रनाथ टैगोर जी का शिक्षा दर्शन: शिक्षा के उद्देश्य और योगदान'
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रवीद्रनाथ टैगोर जी का शिक्षा दर्शन

Updated: Feb 24

By Rakhi Bhargava


रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म बंगाल के प्रसिद्ध टैगोर वंश में सन् 1861 ई. में कलकत्ता में हुआ था। टैगोर-परिवार अपनी समृद्धि, कला एवं विद्या के लिए सम्पूर्ण प्रदेश में प्रसिद्ध था। टैगोर को परिवार में ही देशभक्ति, धर्मप्रियता एवं विद्या के गुण प्राप्त हुये। प्रारम्भिक काल में स्कूली शिक्षा में मिले कई अनुभवों से प्रेरणा लेकर आजीवन शिक्षा सुधार को अपना जीवन समर्पित किया एवं आदर्श शिक्षा संस्था शांति-निकेतन की स्थापना की जो की आज विश्वभारती विश्वविद्यालय के नाम से प्रख्यात है।

1901 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बोलपुर के समीप ‘शांति निकेतन’ की स्थापना की। आज इसकी लोकप्रियता भारत के साथ-साथ विदेशों में भी है। शीघ्र ही महान कवि एवं साहित्यकार के रूप में उनकी ख्याति देश-विदेश में फ़ैल गयी। उनकी विश्व प्रसिद्ध कृति ‘गीतांजलि पर नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन दर्शन:

टैगोर में अनेक गुण थे जिसके कारण वे एक महान शिक्षा शास्त्री व साहित्यकार बने। उन्होंने देश सेवा को ग्राम सेवा से जोड़ा। उनके अनुसार ग्रामीणों पर कृपा करने की अपेक्षा उन्हें उचित सम्मान देना चाहिए एवं जात-पात,उंच-नींच की खाई पाटना चाहिए। वे ईश्वर को सर्वोच्च मानव मानते थे। वे उच्च धार्मिकता वाले व्यक्ति थे। उनका सत्यम् शिवम् अद्वैतम् की धारणा में दृढ़ विश्वास था। उनका विश्वास था कि ईश्वर कि उपासना मंदिरों व अन्य धार्मिक स्थलों पर करना अनिवार्य नहीं है। वरन् भूमि जोतकर व परिश्रम के कार्य करके की जा सकती है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन:

टैगोर की पारिवारिक पृष्ठभूमि दर्शन, विज्ञान, कला, संगीत, कविता, संपन्नता की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध थी। उनका परिवार विभिन्न सामाजिक व सांस्कृतिक आंदोलन का केंद्र था। टैगोर के पास किसी भी बात को शीघ्रता से ग्रहण करने की क्षमता थी जिससे वे महान शिक्षा शास्त्री व साहित्यकार बने।

टैगोर ने शिक्षा के सिद्धांतों की खोज अपने अनुभव से की है उन्होंने भारतीय शिक्षा में नये प्रयोगों की शुरुआत की। उन्होंने भारतीय व पश्चात्य विचारों का सम्मिश्रण किया एवं अपने शिक्षा सिद्धांतों की खोज स्वयं की। जिस समय भारत में विदेशी शिक्षा को पूर्णरूप से अपनाने से मना किया।

टैगोर के समय में समाज में दया व प्रेम का भाव था। वे प्रकृतिवादी थे किन्तु उनके स्वयं के सिद्धांत थे वे समाज को आगे बढ़ते देखना चाहते थे। उनके शिक्षा दर्शन में ‘रहस्यवाद’ के भी दर्शन देखने को मिलते हैं। वे मनुष्य के मूल्यों के गिरने का घोर विरोध करते थे एवं मानव जाति का उद्धार करना चाहते थे वे एक मानवतावादी शिक्षा शास्त्री भी थे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ:

टैगोर के अनुसार-“ सर्वोतत्म शिक्षा वही है, जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।“

शिक्षा के व्यापक अर्थ के अंतर्गत टैगोर ने शिक्षा के प्राचीन भारतीय आदर्श को स्थान दिया है। “ सा विद्या या विमुक्तये” अर्थात विद्या वही है जो सारे बंधनों से मुक्त कराती है।



रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य:

टैगोर द्वारा निर्धारित किए जाने वाले शिक्षा के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए बालक का पूर्ण विकास करना।

  2. बालक का वैयक्तिक, व्यावसायिक और सामाजिक विकास करना।

  3. बालक के शरीर का स्वस्थ और स्वाभाविक विकास एवं उनमें विभिन्न अंगों और इंद्रियों को प्रशिक्षित करना।

  4. बालक को वास्तविक जीवन की बातों, स्थितियों और पर्यावरण की जानकारी देकर एवं उनसे अनुकूलन कराके, उसके मस्तिष्क का विकास करना।

  5. बालक को धैर्य, शांति, आत्म-अनुशासन, आंतरिक स्वतंत्रता, आंतरिक शक्ति और आंतरिक ज्ञान के मूल्यों से अवगत कराके, उसका नैतिक और आध्यात्मिक विकास करना।


रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धांत या आवश्यक तत्व:

  1. छात्रों में संगीत, अभिनय और चित्रकला की योग्यताओं का विकास किया जाना चाहिए।

  2. छात्रों को भारतीय विचारधारा और भारतीय समाज की पृष्ठभूमि का स्पष्ट ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए।

  3. छात्रों को उत्तम मानसिक भोजन दिया जाना चाहिए, जिससे उनका विकास विचारों के पर्यावरण में हो।

  4. छात्रों के नगर की गंदगी और अनैतिक से दूर प्रकृति के संपर्क में रखकर शिक्षा दी जानी चाहिए।

  5. शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिए और उसे भारत के अतीत एवं भविष्य का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।

  6. जन साधारण की शिक्षा देने के लिए देशी प्राथमिक विद्यालयों को फिर जीवित किया जाना चाहिए।

  7. यथासंभव शिक्षण विधि का आधार-जीवन, प्रकृति और समाज की वास्तविक परिस्थितियाँ होना चाहिए।


रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार पाठ्यक्रम:

उन्होंने “जीवन की पूर्णता” को जीवन का लक्ष्य बताया। इस आधार पर उनके विचार हैं कि पाठ्यक्रम बालक के जीवन पूर्ण अनुभवों से संबन्धित हो, ज्ञान कि जिज्ञासा पूरी करने में समर्थ हो राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय आधारों पर निर्मित हो। इस संदर्भ में भाषा साहित्य, गणित, विज्ञान, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, भूगोल, कला सगीत नृत्य, चित्रण, भ्रमण, खेल-कूद, व्यायाम समाज और मानव सेवा आदि के समावेश का समर्थन किया।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षक, विद्यार्थी और विद्यालय:

उन्होंने शिक्षकों की नीतान् आवश्यकता पर बल दिया उनके अनुसार अध्यापक को पूर्ण रूप से प्रशिक्षित होना चाहिए। अध्यापक में सेवा, त्याग, सहयोग, शिक्षण में रुचि, लगन, कर्तव्य परायणता के गुण हो ताकि वह छात्रों का आदर्श बन सके।

टैगोर ने छात्रों के लिए विशेष गुण बताये जैसे व्यवहार में विनम्रता, स्फूर्तिवान, अनुशासित, समाजिकता, साधना आदि। वे उनके व्यक्तित्व का समन्वित विकास करने के पक्ष में हैं।

उन्होंने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली को स्वीकार किया। अर्थात विद्यालय शांत वातावरण, प्रकृति की गोद में स्थित हो। प्राइमरी, सेकेण्ड्री, उच्च, व्यावसायिक एवं कृषि संबंधी शिक्षा के अलग-अलग व्यवस्था हो।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा में योगदान:

उन्होंने देश में विश्वभारतीय की स्थापना कर शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया। वे जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा, ग्रामीण शिक्षा आदि के समर्थक थे। उनके अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम शिक्षण विधि आदि की व्यवस्था वास्तविक जीवन की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर करे। टैगोर ने सौन्दर्यबोध की शिक्षा के अंतर्गत ललित कलाओं को शिक्षा में स्थान दिया। वे रुसों की भांति मुक्त अनुशासन के यत को मानने वाले थे। उनके दर्शन पर आदर्शवाद, प्रकृतिवाद, यथार्थवाद, प्रयोजनवाद एवं मानववाद दर्शनों का प्रभाव है। उनकी प्रबल इच्छा थी कि शिक्षा के द्वारा निरक्षता का निराकरण हो।

By Rakhi Bhargava



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