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Ek Rassi Do Hath
By Bhagat Singh
बुनी थी कभी
सरकंडे को तोडकर
छीलकर, कूटकर
भिगोकर,कातकर
एक रस्सी उसने
अपने दो हाथो से
वो दो हाथ
जो फैलते भी
उधार की खातिर
वो हाथ जो फैलाते है
मिट्टी में सोना
वो हाथ जो जुडते है
बेमौसम बादलो की तरफ
वो हाथ जो खींचते है
कलाईयो से दरांती
वो हाथ जो बांधते है
फसलो का गट्टठर
वो हाथ जो सहेजते है
अनाज की बिखरी ढेरी
वो हाथ जो फिर से फैलते है
पर मिलता है
लागत से भी कम
कर्ज के पीछे बंधे पीले हाथ
जो करने है अपनी अजा के
धुए से भरे खाली चुल्हे में
उपले डाल-डाल
किस्मत की लकीरो को
धुंधला कर रहे है
बंजर जमीन से रगड़ खाकर
हल की नोंक मुड गई है
जैसे उम्र के साथ
मुडती है कमर
खत्म हुई है,हाँ हो ही गई है
चाह कुछ करने की अब तो
बस एक आखिरी काम करके
पीछा छुडाना है
इस चक्र्व्युह के चक्कर काटते-काटते
हारे-हारे हठीले हाथ
आज स्वत: ही कोने में पडी
उस बुनी हुई रस्सी तक जा पहुंचे है
हाथ में रस्सी, सिर पर बोझ
आज खडा है वह
खेत के बीचो-बीच
पेड़ के नीचे
जहाँ से पूरा खेत देख सके
और दे सके खुद को विदाई
अंतिम विदाई
हाथ में हाथो से बनी रस्सी
झूल रही है
अपने ही हाथो रस्सी में
गाँठ बना ली है उसने
एक ऐसी गाँठ
जो दम निकाल सकती है
साँसो को कैद करके
बहुत दूर छोड़ेगी
हाथ से बनी वो रस्सी
हाथो को खाली करके
मुरझाए से जिस्म से
लिपटकर खिंच जाएगी
बहुत बोझ है पेड़ पर
लटकी उस रस्सी पर
खबर कर दी है
थोडी देर में आ ही जाएंगे
उस रस्सी का बोझ उतारने
कुछ वर्दी वाले
कुछ बाते बनाने वाले
कुछ मुआवजा दिलाने वाले
कुछ राह दिखाने वाले
कुछ हक़ जताने वाले
बोझ तो उतर गया है
उस रस्सी से
पर ना जाने क्यो ?
ये रस्सी और कितने
हाथो की साँस रोकेगी
कोई उठो और डाल दो
चूल्हे में इसे
शायद इसके ना मिलने से
कोई गला बच ही जाए
अपना बोझ रस्सी पर डालने से
और इसके इधर से उधर
उधर से इधर
हिलते पालने से॥
By Bhagat Singh