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Aurat Achhee Nhi Lagti
By Sarita Gupta
औरत अच्छी नहीं लगती,
जब, न तो साथ माँगती है,
न सहारे के लिए हाथ माँगती है।
डरती नहीं, न रोशनी में आने से,
न अंधकार घिर जाने से,
निकल जाती है अकेले,
शाम ढलने के बाद भी।
औरत अच्छी नहीं लगती,
जब परित्याग नहीं करती,
अपना परिचय, अपनी पहचान,
जुड़ी रहती है जड़ों से,
छोड़ती नहीं अपना स्थान,
अपनी जगह के लिए लड़ती है,
पानी की लकीर बनी,
ठोस समाज में खड़ी रहती है।
औरत अच्छी नहीं लगती,
जब वो मुरझाती नहीं,
न लफ़्ज़ों से, न ख़ामोशियों से,
व्यंग्य-आलोचना पर मुस्कुराती है,
तानों-फब्तियों के भी लुत्फ उठाती है,
वह लाज से दोहरी नहीं होती,
बेधड़क ठहाके भी लगाती है,
औरत अच्छी नहीं लगती।
औरत अच्छी लगती है,
छः गज की साड़ी में,
घर की ठाकुरबाड़ी में,
चौराहे पर आईने-सी खड़ी औरत
समाज को अच्छी नहीं लगती।
By Sarita Gupta