बंधन
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बंधन

By Aditya Jha


विभिन्न रूपों में बनवाया मुझे

स्वर्ण, लौह, काष्ठ पिंजरा ।

खुश हुआ राजा ,

महल की शोभा बढ़ी।

प्रसन्न हुए लोग ,

बढ़ी दरवाजे पर चहल -पहल।

मुदित हुआ बहेलिया ,

कुछ पण कमाए, गुलामों को बेच कर ।

लटकता रहा मैं ,

रेशमी डोर में बंधे कंगूरे से ,

कभी जंजीरों में घने पेड़ों से ।


छोड़ा बुलबुल ने आलाप भरना

चहारदीवारी से टकरा गंजे हुए तोते ।

समेटता रहा मैं उनकी बद्दुआएँ,

उदास था अंतःवासी ।

गुमसुम निहारता, बौरों से लदी

मदमाती आम्र शाखा ।

कभी झाँकता निरभ्र व्योम में ,

तीर समान दौड़ती वकुल पंक्तियों को,

पर्ण पात के बाद

किसलय से लकदक

विल्व बृक्ष को ।

उबासी आता था उसे

कणक कटोरी में मोदक से ।

याद आये थे उसे `छप्पन व्यंजन '

निम्बोरी ,मिर्च और जंगली जलेबी ।

मूकद्रष्टा था मैं ,

मौलिक अधिकारों के वंचन का ।

लहूलुहान जिस्म का ,

मार्जार के लपलपाती जिह्वा से ,

भयत्रस्त उसके आत्म नाद का ।

विलासियों के मनोविनोद में जुटा,

मुझमें कैद सारा जंगल !




मगन हुआ था जिज्ञासु

चाहा था कुछ सीखना

स्वछन्द विचरणा ,

हिरामन, मिट्ठू ,रामू सा ।

चुपके से खोले थे, मेरे द्वार, बच्चे ने l

अपूर्व साहस से निकला था कैदी

डैने फरफराए,

पर औंधे मुँह गिरा था

रक्त से लथ- पथ।

बेकार कर दिए गए थे अंग प्रत्यंग

गुलामी की जंजीरों ने ।

भूला था, मुक्त वायु में श्वास लेना ।


पिता को बच्चे ने कहा था

उड़ गया पंछी, पिंजरा खाली ।

दो थप्पड़ लगा पिता ने दी थी गाली।

पहली बार मैं अपने सूनेपन से

हर्षित हुआ था -मैं निर्द्वन्द्व था

मेरे जीर्ण शरीर में घुटती

तड़फड़ाती आत्मा न थी ।

देह मुक्ति का ख्वाब देख लिया ।

पर ख़ुशी क्षणिक थी ।

पुनरपि जठरे ,पुनरपि मरणे

फिर चमचमाया गया था मुझे

किसी नए हविष्य के विश्राम हेतु

पर्यावरण ,पारिस्थतकी को

अंगूठा दिखाने हेतु ।


By Aditya Jha




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