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सफर

By Preeti


एक सफर रोज तय करती हूं, खुद से खुद तक का

हर रोज भीड़ में गुम होकर, फिर खुद को ढूंढती हूं

कभी गिरती हूं तो, कभी बस लड़खड़ाती हूं

मंजिल की तलाश में अक्सर, दर ब दर भटकती हूं

गुजरती हूं एक शहर से रोज, जो मेरा तो नहीं

पर कुछ -कुछ मेरे जैसा लगता है

दुनिया के शोर में सबसे तन्हा, सबसे अकेला

गुजरने वालों को भी फर्क नहीं पड़ता

उसकी टूटी बेरंग दीवारों से

मैं भी रोज वहीं से गुजरती हूं

उसकी बातों को बिना अल्फाजों के सुनती हूं

और फिर बिना कुछ कहे, बस आगे बढ़ जाती हूं

कुछ बुरी तो कुछ अच्छी यादों के साथ

ये सफर रोज तय करती हूं




कभी- कभी किसी से टकरा भी जाती हूं

तो कभी कोई खुद ही पास से होकर गुजर जाता है

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि खुद ही दिल

किसी के साथ चलने की ख्वाहिश करता है

तो कभी- कभी अकेलापन‌ भी एक सच्चे

आशिक जैसा लगता है, लेकिन फिर भी

हर दिन मुझे ये सफर कुछ नया सा लगता है

जहां मैं हर रोज गुम होती हूं और हर रोज खुद को

पाती हूं, एक नए रंग में, एक नए रुप में



By Preeti




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