महाविद्यालय के मन की व्यथा
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महाविद्यालय के मन की व्यथा

By Guru Shivam


परिचय

निम्नांकित आलेख कोरोना कालखंड में एक महाविद्यालय के मन की वेदना को उद्धृत करता है, जिसे यात्रा क्रम में संवेदनशीलता से अनुभव किया गया है। तकरीबन ग्यारह माह के अवधि के पश्चयात, जब अधिकारिक भ्रमण के दौरान, संस्थान परिसर के सुन्न सन्नाटे में अनुभव किए गए एक अनसुने सिसक को कलमबद्ध करने का प्रयास किया गया है। प्रस्तुत है ...

महाविद्यालय के मन की व्यथा

एक अरसे बाद, गत सप्ताह अपने कॉलेज जाने का अवसर प्राप्त हुआ। कोरोना के बाद ,बदले परिवेश में कॉलेज परिसर की आवोहवा भी बदली सी प्रतीत हो रही थी। सुनसान पसरे सन्नाटे में, संस्थान की वेदना स्पष्ट तौर पर सुनी जा सकती थी कि; विगत 11 महीनों से बुत्त बनकर खड़ा हूँ, उनके इंतजार में, जिनके आने से गुलज़ार हुआ करता था मैं, जिनकी ठिठोलियों से खिल-खिलाया करता था मैं, जिनकी चहलकदमी से चहकता था मैं, जिनकी सफलताओं से खुद को समर्थ सिद्ध समझता था मैं, कि जिनके होने से, मेरे अस्तित्व का वजूद जुड़ा था, वो मेरे बच्चे कहाँ हैं? वो मेरे लाल कहाँ हैं? आखिर कौन सी गलती की होगी मेरे बच्चों ने, जो अब मुझसे मिलने भी, अपना मुँह ढक कर आ रहे हैं ?

खाली पड़ी वो सारी कक्षाएँ, जहाँ कभी अनवरत चला करता था अध्ययन -अध्यापन का सिलसिला, खाली पड़े वो कॉरिडोर, जहाँ कभी जुटती थी दोस्तों की जमघट, औऱ होता था फलसफ़ा। मुरझाए से थे वो फूलों की क्यारियाँ, जहाँ कभी धूप सेंकते बैठते थे बच्चे, और बनाते थे अपनी यरियाँ। पुस्तकालय परिसर में आज भी वैसी ही रखी थी वो दिव्य सरस्वती की प्रतिमा, जिन्हें कभी नमन करने के पश्चात ही बच्चे , अपना पुस्तकालय संदर्भित कार्यों को आरंभ किया करते थे। पर आज वही देवी प्रतिमा की दिव्यता निस्तेज लग रही थी। प्रतीत हो रहा था मानो खुद सरस्वती की सरस्वती कहीं गुम सी हो गयी हो।



हर चौखट, हर दीवार, हर खिड़की, हर किवाड़, संस्थान से जुड़ी हर एक चीज मानो उस अनसुने सुन्न - सन्नाटे में चीख़ चीखकर बस एक ही बात बस रट लगाए पूछे जा रहे थे, मेरे वो बच्चे आखिर कहाँ हैं? मेरे वो नन्हें मुन्ने कहाँ हैं?

कॉलेज के चिर परिचित गलियारों में अपने अतीत की स्मृतियों को ढूँढते हुए जब अपनी उस पुरानी कक्षा में पहुँचे, तो वहाँ भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। डेस्क से जुड़ी वो सारी साफ- सुथरी कुर्सियाँ, जिन्हें आज भी बेसब्री से इंतजार था अपने बच्चों का..अपने आरामदेह गोद मे बिठाने का। दीवाल से लटके वो श्वेत श्यामपट्ट..जो आज भी लालायित थे उन महरूम क्षणों के लिए जब वो फिर, स्याही से अपने सीने आकृतियाँ उकेरेगा.. अपने बच्चों को कुछ सीखाने के लिए..।

शुक्र था... ऐसे व्यथित, भावावेषित मानसिक उथल- पुथल के बीच मैं अकेला नहीं था, मेरे कुछ मित्र भी मेरे संग थे, जिनके संसर्ग में, समय समय पर मेरा मनोरंजन होता रहा...और मैं तत्कालीन मानो भावों से अप्रभावित रहा।

संस्थान परिभ्रमण के इसी क्रम में, खाली कक्षा को देखकर, मेरे किसी वर्ग साथी में प्रस्ताव रखा, क्यों न अपने कक्षा की पुरानी यादों को ताजा करते हुए, हम बारी बारी से लेक्चर डेस्क के जरिये उन्मुक्त रूप से अपनी अपनी बात रखे, जैसे लगे मानो कक्षा ही चल रही हो

हमने तुरंत हामी भर दी। मंच ओर माइक से तो अपना पुराना संबंध रहा है, पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं था। सबने अन्य अन्यत्र विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत किये।

...जब मेरी बारी आई तो मैंने भी अपनी एक स्वरचित कविता सुनाई जो संयोग से हमने बीते अंतिम दिसम्बर, नव वर्ष के शुभागमन पर, अंतस शौर्य- शक्ति से लबरेज बतौर नव संकल्प लिखी थी..(मौत से पहले कुछ इंतजाम )।

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By Guru Shivam



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