By Bhagat Singh
मैने पूछ ही लिया मन ही मन
खड़े पेड़ से एक दिन
चुप क्यो हो ?
कुछ ना बोला
पर पत्तिया सरसरा उठी
मैने कहा, कब से खड़े हो ?
मेरे जैसे कितनो को देखा है
इस जगह से आते-जाते
कितनो को साँस दी है
अपनी साँस से
कोई जवाब नहीं आया
बस एक सूखी टहनी तिड़की और
गिरकर विभक्त हो गई
ना जाने क्या बेबसी
जाहिर करना चाह रही थी
लाख कोशिशो के बावजूद
एक सूखा सा बीज
जिसे आज गिरना था
और हरा होना था
रुकने की जिद काम ना आई
आया हवा का झोंका और उड़ा ले गया
पीछे-पीछे एक पीला पत्ता
जम्हाई लेता हुआ कूद पड़ा
और ढेर हो गया
पहले से गिरे पत्तो के बीच
लगता है, बीज से लगाव था
मिट्टी में मिल बीज में समाँ गया
पेड़ फिर भी वही अडिग था
पारा बढाते हुए झुँझलाकर कह उठा मन
कब तक चुप रहोगे
अब तो बोलो
कितनी बार काटा गया होगा तुमको
कितनी बार पटाखो का धुआँ निगला होगा
कोई आवाज नही आई
आया तो बस पटाखो का शोर
अब सरसराहट भी रुक गई थी
शायद फिर से
अभी-अभी हवा में घुलता हुआ
थोड़ा धुआँ निगला होगा
में भी जोर-ज़ोर से साँस लेने लगा
उस पेड़ जैसा बनने के लिए
पर नहीं
थोड़ी देर खाँस कर
चुप हो गया मै
चुप ! उस पेड़ जैसा चुप॥
By Bhagat Singh