Kya Isliye Insaa Hai
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Kya Isliye Insaa Hai

By Bhagat Singh


सोचता है

सोचता है क्या इसलिए इंसा है

या इंसा है इसलिए सोचता है

धर्म को जोड़कर

आत्मा को छोड़कर

अपने आप से कही अलग होता

कभी डूबता तो कभी लगा गोता

समंदर सी गहराई वाला मन डूबता

अपने आप हँसता तो कभी आप ही ऊबता

भूलता है, भूलकर समझता है

समझता है क्या इसलिए इंसा है

या इंसा है इसलिए समझता है


रखता है संभाल कर

अपने दंश को तैयार कर

कब कौन जाने किस डगर

जहर का हकदार हो

कोई गिरगिट सा कही

रंग बदलने को तैयार हो

बदलता है

बदलता है क्या इसलिए इंसा है

या इंसा है इसलिए बदलता है


संदिग्ध सा , बेगाना सा

सर्द कभी सुहाना सा

मुरझाया कभी उज्जवल सा

उड़ते प्रश्नो के हल सा

एक बूंद छोड़ मिट जाता है

और फिर उसी से उभरता है

उभरता है क्या इसलिए इंसा है

या इंसा है इसलिए उभरता है



चोट देकर, चोट लेकर

उबारता है, उबरता है

संगत से बिगड़, सुधारता है

कभी सुधरता है

जंग जीतकर जंग हारकर

कंधो पर डालकर

हाथों से थामकर

संभालता है, संभलता है

संभलता है क्या इसलिए इंसा है

या इंसा है इसलिए संभलता है


दूर जाकर पास रखकर

चिल्लाकर कभी चुप रहकर

सिक्को को समेटे



तन पर चीर लपेटे

चला जाता है घुमकक्ड़ सा घूमता

ख्वाबो मे बने चित्रो को चूमता

अपनो के लिए अपनो से बिछुड़ता है

बिछुड़ता है क्या इसलिए इंसा है

या इंसा है इसलिए बिछुड़ता है


गलत पदचिन्हों को पहचान कर भी

उन्ही पर चलता

अपनी ही अपनी सोच पर मचलता

और फिर अपने आपको सौंप देता है काल को

समझ नहीं पता अपनी ही चली चाल को

बिखरता है उजड़ता है

उजड़ता है इसलिए इंसा है

या इंसा है इसलिए उजड़ता है॥


By Bhagat Singh





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