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Bikhar
By Jignasa Parikh
एक बिखरा हुआ मन, एक बिखरा हुआ कमरा कमरे में बिखरी हुई चीजें और चीजों में बिखरी हुई यादें यादों में बिखरे हुए लोग, लोगों के बिखरे हुए अल्फ़ाज़ अल्फ़ाज़ों में बिखरें जज़्बात. जज़्बातों में बिखरा मन बिखरे हुए मन ने कमरे को देखते हुए मुस्कुराते कहा आओ चलो खुद को थोड़ा समेत लें समेटने लगे बिखरी हुई किताबें, किताबों के पन्नों के बीच में सूखे बिखरे फूल सूखे फूलों पे बिखरी झुर्रियाँ, झुर्रियों में बिखरे नानी के हाथ नानी के हाथों में बिखरी हमारी सारी दुनिया, दुनिया में बिखरे हम और हमारा मन मन ने हमें फिर दस्तक देते हुए कहा आओ चलो खुद को थोड़ा समेत ले
समेटने चले हम बिखरे कपड़ों को, कपड़ों में बिखरी उन जगहों की ख़ुशबू को ख़ुशबू में बिखरे शोर को, शोर में बिखरी धड़कते दिल की आवाज़ को धड़कन में बिखरी हुई वो जानी पहचानी सी धुन को धुन में बिखरें हुए तुम, तुममें बिखरा हुआ मेरा मन मन ने गुनगुनाते हुए फिर से कहा आओ चलो खुद को थोड़ा समेत ले समेटने चले हम कुछ बिखरे डब्बे, डब्बों में बिखरा बचपन बचपन से बिखरी मासूमियत और हंसी, हंसी में बिखरी बेफ़िक्री बेफ़िक्री में बिखरा वक़्त, वक़्त में बिखरी पहचान पहचान से बिखरा अनजान मन नमी भरे मन ने सहलाते हुए कहा चलो खुद से खुद की पहचान करें आओ चलो खुद को थोड़ा समेत ले
By Jignasa Parikh