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अंतर

By भारती बिंदु


द्रवित होता जो मन

निचोड़ लेता है तन

जो उठता है अंत:हूक

उसे ही कहते हैं दुःख !!


हृदय पर हो आघात

बस कोई सी भी बात

अंत:द्वंद्व करे क्रीड़ा

बस ! यही तो है पीड़ा !!


छुप कर जो लेते रो

घूँट आंसू पी लेते सो

हो दुरूह जिसे भेदना

हाँ ! यही तो है वेदना !!





कह सके न सह सके

न जी सके न मर सके

ज़िंदगी हो रही नष्ट

सखि ! यही तो है कष्ट !!


हो स्त्री या कि पुरुष

अछूता न कोई भाव से

दुःख पीड़ा वेदना कष्ट

उसे भी होता अभाव से


किंतु स्त्री हो संकुचित

रो देती है स्वभाव से

पर पुरुष बन कठोर

कार्य करता प्रभाव से !!



By भारती बिंदु































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