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सफर
By Sanat Raj
अब भी सफर में हूं,
मंजिल को ताकता,
जिसे पाने की उम्मीद में,
अब तक हूं भागता,
नींद तो बहुत आई,
पर यादों से ज्यादा था राबता,
अब राहें मुश्किल मालूम पड़ती हैं,
फिर भी अकेले हूं उसे नापता,
बस्ता कुछ भारी सा है,
पर कब आसान हुआ ये रास्ता,
अब दिन भी ढलने को है,
खत्म होने को एक दास्तां,
शायद सदा को आए ये अंधेरा,
पर मैं नहीं उससे कांपता,
गम वक्त बीत जाने पर नही होता,
होता है जब अतीत में हूं झांकता,
कब तक ठंडे पड़े रिश्तों को,
उम्मीद की लौ से तापता,
अगर साथ होते वो खास चेहरे,
तो जीवन में कभी ना हारता,
अगर टूटता ना वो धागा,
तो एहसासों को कभी ना दाबता,
खैर अब वक्त है कदम बढ़ाने का,
कब तक इंतजार मे वक्त काटता,
खैर हकीकत से रूबरू हूं,
अब बेवजह नही तरसता,
बुझता है वो लौ हर बार,
जब आंखों से अश्क है बरसता,
खामोशी को पहने हूं,
अब किसी पर नही गरजता,
जो है शायद वही बेहतर है,
और इससे ज्यादा मैं क्या ही करता।
By Sanat Raj