By Parimal Singh
आज फिर चौक में खुद को अकेला पाता हूं,
यूं तो मेला लगा है, भीड़ है बड़ी, पर तारूफ करने से कतराता हूं।
प्रतिस्पर्धा की दौड़ है यहां, सिर्फ नफरत और द्वेष की लू चलती है,
दिन रात एक करने में यहां, किसे खबर कब चढ़ता सूरज और कब शाम ढलती है।
यहां कमी तो नहीं है कहीं भी किन्ही भी चीज़ों की,
पर ये खिलौने, यह झूले सारे जागीर हैं रईसों की।
गरीब तो यहां फेरी और ठेले लगाने आता है,
उसके हिस्से में बस यह शोरगुल का आलम आता है।
खरीदकर उससे चीज़ें खुशियां पाते है बाकी,
वो अधनंगा शरीर तो रोज और बिकता चला जाता है।
मैंने तो पाठ पढ़े थे बस करुणा और प्रेम के,
मिले कितने चेहरे यहां ओढ़े नकाब फरेब के।
उनके दुखों में भागीदार बनकर, सोचा कुछ दोस्त बनाता हूं, थोड़ी दुआएं कमाता हूं,
पर प्यार के सिक्कों का यह बाज़ार नहीं, इसलिए हर मोड़ पे मात खाता हूं।
आज फिर चौक में खुद को अकेला पाता हूं।
By Parimal Singh