By Srishti Gupta
क्लिष्ट मेरी सोच है
या संकीर्ण मेरी आदतें
क्या हुई मजबूरियां?
जो बदलती नहीं है सूरतें।
वक्त तो बदलता जाता है
रुके हुए वक्त के साथ भी।
तलाश लेते हैं हम कलों को
और अपना आज भी।
फ़िर क्यूं हमसे रूठा हुआ है
हमारा कल का वक्त आज भी?
क्या हम भी करें शिकायतें?
टूटे लयों की साज़ में
जो बिगड़े तो ये भी सही
बन जाए तो ये भी सही
पर ना खोएंगे हम अपने कल
और ना अपना आज़ भी।
साज़ टूटा हो, तो टूटा सही
वक्त रूठा हो, तो रूठा सही
पर कहीं बना हुआ सा होता है
कितना हो टूटा साज़ भी।
ना कल जानता था मेरी ख़ुदा
ना जानता है आज़ भी..
तो क्या संकीर्ण थी उसकी भी सोच
मेरी आदतों के साथ भी?
By Srishti Gupta