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घर

By Pragya Sharma



एक उम्र बीती है खून जलाते

हों शाम को घर जाते हाथ खाली नहीं

काफ़ी वक्त बीता है खुद को समझाते

सब बेहतर होगा 'गर तुम बेहतर बनीं


सिरे से सिरे तक उधेड़ दी शक्सियत अपनी

चुन-चुन‌कर जला दी ख़बासत अपनी

नापसंद थी तुम्हें मिटा दी खैरियत अपनी

फिर सबसे छिपा दी हर चाहत अपनी



कुछ पल बीतें हैं खुद को बनाते

मुकम्मल तो अब भी मैं नहीं बनी

कदम चल चुके हैं अब बता दें

क्यों लगता है जैसे मेरा कोई घर नहीं


By Pragya Sharma



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