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घर
By Dr. Shubham Hiremath
दीवाली की नरम श्याम घर है, दशहरे की सजावट घर है ।
पटाखों के बाद आंगन में लगे काले दाग घर है।
नए कपड़ो की खुशबू घर है ,बाप्पा की आरती घर है ।
अगले दिन नहाकर भी बचा हुआ फीका सा टिका घर है
"माँ "ही तो घर है ।
"कितना पतला हो गया है रे तू "ये भी एक घर है।
पूरे साल का खाना एक छुट्टी मैं खिलाने की उसकी जिद घर है ।
बालों में तेल लगाती उंगलियां घर है।
गोद में सर रख के सोते वक्त उसकी भीगीं पलकें घर है ।
दादी का चेहरे पे हाथ फिराना घर है ।
बेहेन से झगड़ा घर है।
बाल्कनी के नीचे से दोस्तो की पुकार घर है।
पिता की सिर्फ मौजदूगी घर है।
सुकून वाली सर्द बाहे घर है ।अनंतता लम्बी झप्पी घर है।
न जाने कितने महिनों का इंतजार छिड़कती वो निगाहें घर है।
ऐसी कई बातें जो होंठो तक कभी आयी नही वो फ़साना घर है।
घर जगह थोडी है घर तो एहसास है ।
दुआ देती हर नजर घर है ।
हर वक़्त कुछ अधूरा है तुझमें, वो कमी घर है ।
By Dr. Shubham Hiremath