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मैं
By Vidhi Kotak
थोड़ा कुछ सोचती हूँ,
फिर संभल जाती हूँ;
कौन- क्या- कैसी हूँ मैं,
खुद से पूछके आती हूँ.
कभी खुश यूँ कि मेघ-मल्लहार,
कभी झूठा प्यार जताती हूँ;
कभी आशाओं के भंवर में,
ज़ख़्मी होकर आती हूँ.
'क्या खोया- क्या पाया -
'ये सोचकर जीये जाती हूँ;
कभी हक, कभी बेईमानी से-
मन्न ज़रूर लुभाती हूँ.
पर, ईमान भला है ही क्या?
क्या है इस मन्न का मोल?
मैं कितनी सच्ची- कितनी ग़लत,
कोई क्यों करे इसका तोल?
सदा सवालों से सजी रहूँ,
या देखूँ जवाबों का जूनून;
दोनों शायद सिर्फ़ शब्द ही हैं;
भावार्थ इन्हें मैं दूँ- न दूँ.
मैं भी थोड़ी तुझसी हूँ- तू भी थोड़ा मुझ जैसा,
मैं शायद कभी सही, तू शायद ग़लत नहीं;
अगर दृष्टिकोण भी लफ़्ज़ों का दास,
तो ये जीवन एक कविता ही सही.
थोड़ा कुछ सोचती हूँ,
फिर संभल जाती हूँ;
कौन- क्या- कैसी हूँ मैं,
खुद से पूछके आती हूँ.
By Vidhi Kotak