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माँ
Updated: Dec 2, 2022
By Bhanupriya
मैं अक्सर झरोखे से देखती हूं
उस सूखे पेड़ की हरी टहनी को
कुछ ही पत्तें शेष बचे है
बदन पर उसके
कभी हरे थे
अब मटमैले, पीले से है सारे
बढ़ती उम्र की झुर्रियां साफ नजर आती है
हर एक पत्ता, मानो उम्र हो पेड़ की
अब शायद!
कुछ ही माह साल शेष होंगे
उसकी हर डाली को मैने सूखते देखा है
मानो किसी अपने के विरह का गम हो उसे
कईं फलों को बाज़ारों में बिकते भी देखा
बेटे होंगे शायद इसके
शहर कमाने जाते होंगे..
कभी कभी कुछ शैतान बच्चे
पत्थर मार भाग भी जाते है
और पेड़
नाराजगी में बस पत्ते फड़फड़ा देता है
जैसे मोहल्ले की कोई बूढ़ी अम्मा
होंठ हिला बकती हो गालियां..
बाकी वक़्त पेड़ सख्ती से
पथराया सा रहता है
मानो टकटकी लगाए कोई मां
बेटों के इंतजार में बैठी हो..
ये माएं भी न,
उफ्फ!!
न जाने किस मिट्टी की बनी होती है..।
By Bhanupriya