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माँ
By Budhraj Singh Khinchi
विधाता का शाश्वत स्वरूप है माँ।
प्रेम का विशुद्ध रूप है माँ।
जाड़े की गुनगुनी, सुहावनी धूप है माँ।
सुरक्षा का साक्षात् स्वरूप है माँ।
एक सम्पूर्ण विश्वविद्यालय है माँ,
जहाँ शिक्षा नहीं ज्ञान मिलता है।
जगदम्बा का भौतिक स्वरूप है माँ,
जिसकी क्रोड में ईश्वरीय विधान पलता है।
शब्दों की क्या औकात जो माँ को परिभाषित कर पाये।
माँ सरस्वती स्वयं मातृ महिमा लिखे तो वो भी नेति नेति ही कह पाये।
प्रकृति और परम पुरुष के सृजन की सहभागी है माँ।
इसीलिए त्याग की मूर्ति, परम विरागी है माँ।
माँ है तो सृष्टि है।
माँ स्वयं दिव्यदृष्टि है।
जीवन का सत्कार है माँ।
परमेश्वर का साक्षात्कार है माँ।
और क्या कहूँ 'बुध'
ब्रह्म की शून्यता है माँ।
आत्मा की चैतन्यता है माँ।
प्रकृति की पूर्णता है माँ।
परमात्मा की सम्पूर्णता है माँ।
By Budhraj Singh Khinchi