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माँ
By Jagrati Chaurasiya
माँ तू हैं, तो मैं हूँ।
कही न कही तेरे होने से मेरा होना हैं।
मैं तो कही दफा उलझनो में फँसकर उनमें गुम हो जाती हूँ।
पर तेरी आँखो की चमक ही तो हैं जिसमें अपने आप को देख पाती हूँ।
औरो के लिए तो मैं बस इक ही इंसान हूँ।
पर तेरे लिए सारा ज़माना बन जाती हूँ।
शायद मैं मेरा अस्तित्व कभी न जान पाती।
सच तो ये हैं कि तुझे देखकर मेरी ख़ुद से पहचान होती।
इस दुनिया की चकाचौंध में तो हर कोई गुम हो जाता हैं।
इक तू ही तो हैं, जो मुझे इस चमक-दमक में भी
ख़ुद के गुणो को बरक़रार रखना सिखा जाती हैं।
क्या-क्या बताऊँ, क्या लिखूँ तेरे बारे में तू ऐसी शख्सियत हैं।
जिसको लिखने बैठूँ तो किताबे भर जाती हैं,
लफ़्ज कम पड़ जाते हैं, स्याही सूखने लगती हैं।
आखिर तेरे व्यक्तित्व की थाह लगाना हर किसी के क्या,
किसी के भी कल्पना से परे हैं।
हो भी क्यों न लोगो ने जो कल्पना भी न की तूने
ऐसे जटिल काम कितनी सरलता से करे हैं।
By Jagrati Chaurasiya