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दोष
By Rimjhim Nigam
दूर सलीके नज़र गयी तो,
देखा एक बग़ीचे में ।
कली वो खिलखिलाती, इठलाती सी,
सैर करती थी झूलों पे ।
नन्हें पावों से नाप डालती,
धरती के हर कण-कण को ।
मिश्री सी आवाज़ से अपनी,
पका डालती बड़े-बूढ़ों को ।
यूँ ही एक दिन मदमस्त होकर,
चली जा रही थी डगर पे ।
पीछे से जानी पहचानी,
दस्तक दे दी परछाई ने ।
परछाई जो व्यापक हुई इतनी,
मासूमियत का आलिंगन करके ।
फँस गयी भोली निष्कपटता,
जल भँवर की गहराई में ।
सुनकर आग लगी सीने में श्रोता,
शांत ना करना तुम उसको ।
जो गिर गए निर्ममता की खाई में,
उनका दोष आख़िर किसको ?
By Rimjhim Nigam