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गज़ल
By Vijaykumar Kishanrao Dhamangaonkar
आसमान की परत पर सुराग बनाए भी तो कैसे,
सोचता हूँ तो भी माँ के पल्लू का रफ्फू याद आता है |
फूल वही पर कभी क़ब्र तो कभी सहरे पर सजाए जाते हैं,
कली वही अगर कुचले तो वारांगना और सहलाएँ तो वीरांगना बन जाती है |
निकले थे आसमान की बुलंदियों पर आशियाने की तलाश में,
मगर वह प्यार कहाँ ज़मीन से जुड़ी झुग्गी के पलाश में |
जो सिंगार बौछार में है वह धार में कहाँ,
जो सुकून प्यार में है, वह पल भर के वार में कहाँ |
यह कल का भरोसा किसने दिया,
जिसके हाथों से आज ही छूट गया |
सूरज की किरणें हर खंडहर की तह तक नहीं पहुँचती,
तो यह न समझना की रात हुई,
रात के वीराने खंडहर में,
जुगनू भी अँधेरे को चीर देते हैं |
By Vijaykumar Kishanrao Dhamangaonkar