By Banarasi
रात के अंधेरे में
खामोशियों का बसेरा था।
जगमग जगमग रोशनी के बीच
ढूंढता साथ तेरा था।
ना ही कोई मंजिल
ना ही कोई किनारा था
थकी निहारती आंखे
गम के बादलों ने घेरा था।
पहचान पहचान को तलाशती
मेरी किश्ती में छेद हो रहा था।
देख डूबता बनारसी को
समंदर ने इक खेल खेला था।
जिंदगी और मौत के बीच
झूलता वक्त ठहरा था।
सवालों के तूफान में हर सवाल
मुझसे बस यही कह रहा था।
कैसे बचाएगा खुद को
जब खुद ही खुद से गुम हो रहा था।
By Banarasi
🙏✍️👍
💥💥💥
A masterpiece. Hits hard when we relate it with ourselves.
Bhai.. mast hai...
From the deep of heart