top of page
  • hashtagkalakar

आदम

By Akshay Sharma


जगतगंज के रिकॉर्डिंग स्टूडियो में राग खमाज के अलंकार गूँज रहे थे। साउंड प्रूफ़ शीशे के उस तरफ़ खड़े कलाकार, लोक गायक विष्णु नारायण भारद्वाज जी के अंदाज़ को देख, गोलू को उस्ताद साब की याद आ रही थी। उँगलियों से लयकारी का चित्रण और मींड गाते समय धड़ को हल्का सा लचीला कर देना। केवल शरीर की मुद्रा ही नहीं, आवाज़ में भी वैसा ही विनम्र जादू।"सच! उस्ताद साब जादूगर थे", ये बात जब गोलू की ज़बान से फिसली तो रिकॉर्डिंग इंजीनियर ने कहा "तो उनको भी बुला लेते हैं ....अच्छी जुगलबन्दी हो जाएगी दोनों के बीच", गोलू ने मन में सोचा “काश!..उन्हे कहीं से बुला सकता”।

प्रदेश प्रसिद्ध विष्णु भरद्वाज जी के कुछ चुनिंदा लोक गीतों को रिकॉर्ड करने गोलू अपने गुट को लेकर ख़ासा बम्बई से बनारस आया हुआ था। ये पूरा अभियान उसके अकेले की प्लैनिंग नहीं थी, इन रिकॉर्डिंग सेशन्स की फ़ंडिंग ख़ुद 'सुर संगीत' प्रोडक्शन हॉउस कर रहा था और बाक़ी बचा योगदान 'संगीत नृत्य अकैडमी' की तरफ़ से आया था। गोलू और उसके बैंड का लक्ष्य था सीखना और अपने बनाए संगीत में उन लोक गीतों की छवियॉं फ़्यूज़ कर पाना। गठिये के रोग और दमा के कारण विष्णु जी को मुंबई स्टूडियो तक बुलाया नहीं जा सकता था इसलिए पूरी टीम यहीं आ गई, सारे हाई एन्ड इक्विपमेंट लेकर ताकि रिकॉर्डिंग बिल्कुल साफ़ मिले। टीम के अधिक्तम लोगों के लिए बनारस भ्रमण नया था, कुछ तो उत्तर प्रदेश ही पहली दफ़ा आए थे, पर गोलू के लिए ये जगह अलग महत्त्व रखती थी। वाराणसी उसका ननिहाल था, उसके नाना की मिठाई की दुकान हुआ करती थी यहाँ अस्सी घाट के पास क़रीब बीस साल पहले।

तीन मंज़िला इमारत में घर की सबसे निचली मंज़िल पर ये दुकान थी जहाँ मलाई बर्फ़ी, तिल के लड्डू और मख्खन मिला करता था, सुबह के छह से दिन के दो बजे तक।'देस देसी मिठाई' की एक ब्रांच यहाँ थी और एक लखनऊ में, जो निवास स्थान था गोलू की नानी का। भाइयों के आपसी मन मुटाव के कारण ज़मीन बाँट दी गई और उनकी ये पुश्तैनी दुकान बंद हो गई। लखनऊ वाला शाखा आज भी और बेहद मशहूर। ज़मीन का अपना हिस्सा और दुकान अपने छोटे भाई को बेचकर उसके नाना ने उन पैसों से अपने नाती के नाम एक फ़िक्सड डिपॉज़िट अकाउंट खुलवाया और ख़ुद पूरी जीवनी ले वे लखनऊ आ गए और अंत तक वहीं रहे। उनके भाइयों ने बनारस की टूरिस्ट व्यसाय क्षमता को देखते हुए वहाँ एक लॉज की व्यस्वस्था शुरू करवा दी। पर ये वो वजह नहीं थी जिस कारण अंतरिक्ष उर्फ़ गोलू को वाराणसी आना अब पसन्द न था।

रिश्ते जब सामान्य थे तब वो अक्सर आया करता यहाँ, न केवल गर्मियों की छुट्टि पे बल्कि हर बड़े, छोटे अवसर पर। उद्देश्य केवल सैकड़ों मलाई बर्फ़ी खाना और अस्सी घाट का शीत शीतल सुकून ही नहीं थी, वजह थी उस्ताद दौलत ख़ान साब से गायकी सीखने का शौक़। संगीत की शुरुआती तालीम के श्रेय उन्ही को जाता है। वो एक धुरंधर गायक तो थी है साथ ही उनके व्यक्तित्व और उनकी बातों में एक तरीक़े का तिलिस्म था। उनका वास्ता ना तो किसी हिन्दुस्तानी घराने से था और ना वो किसी महफ़िल में गाते बजाते, फिर भी नूरी ख़ाला, जो उनके कमरे के बग़ल में रहती बतातीं कि बड़े बड़े फ़नकार और विख्यात लोग उस्ताद साब से मिलने आया करते थे। इसकी एक वजह थी कि उन्हे कम से कम पाँच हज़ार बंदिशें याद थीं। ये वो पाँच हज़ार थीं जो उन्हे सोते से उठाएँ, तो वो सुना दें, बाक़ी वो दिमाग़ पे ज़ोर डालके खोजते तो ना जाने और कितनी हज़ार फूट पड़तीं। अपने यूनिक स्टाइल और फ़न के चलते उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हे 'वाजिद' के ख़िताब से सम्मानित किया और एक मासिक पारिश्रमिक आय उन तक मुहिया करवाई थी।

गोलू जब उनके पास आता तो उसके लिए वो एक रियाज़ी रूटीन तैयार रखते। उसको रागों के नाम बताए बिना सिर्फ़ उनके चलन या सुरों से गायकी का अध्ययन करवाते। रियाज़ भैरव के खरज सुरों से आरम्भ होता और सूरज चढ़ते ही राग ललित के मन्द्र सप्तक से मध्य सप्तक में प्रवेश करता। आधे पौने घंटे के विराम के बाद, बिलावल के सुरों को छुआ जाता। राग बिलावल के आरोह-अवरोह पे वो ख़ासा ध्यान देते और धूप चढ़ने तक उसी पे रहते। दिन के खाने के बाद उस्ताद साब अपने पसन्दीदा रागों में से एक, राग मियां मल्हार की एक बंदिश 'घन गरज सुनी' का अध्ययन करवाते और फिर अगर गोलू का मन टिक पाता तो एक यमन का आसान सा आलाप या भूपाली की द्रुत लय पे तान। रागों की प्रक्रिया तक पहुँचने में गोलू को ढाई साल लगे थे, जो दौलत ख़ान साब के हिसाब से बहुत कम वक़्त था। तालीम के पहले साल में उसने तानपुरे पे केवल 'सा' लगाया था और तीनताल को हर लय में पकड़ना सीखा था।





इस शौक़िया शिक्षा में अंतरिक्ष का साथ देता केशव उर्फ़ डोडा, जो अपने पिता, पंडित देव महाराज के साथ उस्ताद साब के घर आया करता। डोडा अपने पिता की देख रेख में तबला सीख रहा था तो रागों का चलन समझने और पंडित जी और उस्ताद साब की जुगलबन्दी को सुनने वो भी उनके साथ आता, सही मायनो में लाया जाता। गोलू के लिए माहौल जादुई था पर डोडा के लिए एक ज़िम्मेदारी, अपने पिता के नाम और कला को आगे ले जाने की, इसी वजह से जितना मज़ा उस माहौल का गोलू ले पाता उतना डोडा नहीं, वो बची सारी कसर बाद में निकालता जब बड़े गुरु पास न होते।

मस्ती का आरम्भ होता दौलत ख़ान साब की पोटली से बीड़ी या पान का पत्ता चुराके उनकी गायकी के ढंग और बैठने की मुद्रा की नक़ल उतारकर। इसमें डोडा, उस्ताद साब बनके गोलू को तालीम देना का अभिनय करता और बीच बीच में उदाहरण के तौर पे फ़िल्मी गाने गाके उसकी गायकी दुरुस्त करवाता। इन नाटकीय दृश्यों में कई बार बड़े अभिनेता और सुपरस्टार भी उस्ताद साब से मिलने और सीखने आते। बाक़ी बची हुरदंग वो दुकान की रसोई में मचाता। बर्फ़ी के लिए तैयार खोए के वो गट्टे निकाल निकालकर महँगे सैनिक तैयार करता और फिर उन्हे दो तरफ़ तैनात कर देता, तबले के बोल शुरू कर उनके बीच युद्ध करवा, वो बीच बीच में कुछ सैनिकों को खाता भी रहता। केशव की इस कलाकारी में अंतरिक्ष पीछे से बैकग्राउंड म्यूज़िक दे दिया करता, टी.वी पर दिखाए किसी युद्ध वाले सीरियल के। इन सब में सबसे लाजवाब थी डोडा की अमेरिकन पॉप गानों की नक़ल, जो वो बड़े चाव से करता था और अपने पिता से छुप के। गाते समय उसका अमेरिकन एक्सेंट इतना सटीक होता कि लगता वो अमेरिका का ही रहने वाला हो।

बनारस से वापस दिल्ली आने के बाद भी गोलू का मन यहीं लगा रहता। उसकी इच्छा थी की किसी तरह उसके पिता का ट्रांसफ़र यहीं हो जाए ताकि वो इसी तरह उस्ताद साब से संगीत सीखता रहे और डोडा के साथ खेल सके, पर फिर, एक घटना ने गोलू की बनारस के प्रति इच्छा बदल दी।

बोर्डिंग स्कूल में दाख़िले के बाद उसका अपने नाना के यहाँ आना कम हो गया, अब जब भी छुट्टी मिलती तो वो देहरादून से सीधा दिल्ली जाता। बड़े अर्से बाद जब फिर मन बनाया तो ख़बर फैली कि उत्तर प्रदेश के उस कोने में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो चुके थे। वहाँ से आने जाने वाली ट्रेनों को पूरे एक महीने के लिए रोक दिया गया था। जितनी सूचना उसके नानाजी ने दी उसके हिसाब से वाराणसी में उन दंगों का असर बिल्कुल न था और कहीं अगर रहा भी हो तो अस्सी घाट में ऐसी कोई वारदात नहीं हुई थी जिससे डरा जाए। इस आश्वासन के बावजूद गोलू, उस्ताद साब का हाल जानने को उत्सुक था तो उसने पंडित जी के घर कॉल लगाया। कई कोशिशों के बाद, शाम को जब डोडा ने कॉल उठाया तब उसने बताया कि इस एरिया में दंगों की कोई गड़बड़ न सुनकर, वो, पंडित जी और उस्ताद साब, वसंत पञ्चमी के लिए आयोजित समारोह की ओर निकले। समारोह 'नव नगर' में स्थापित एक मोक्ष स्थल के पास था। नव नगर वही जगह थी जहाँ उस्ताद साब ने अपने गुरु से ता'लीम पाई थी इसलिए इस जगह की एहमियत ज़्यादा थी। पूरे साल में यही एक ऐसा आयोजन था जहाँ उस्ताद साब जाते और अपनी गायकी वहाँ की आब-ओ-हवा को अर्पण करते। गुरु का स्थान होने की वजह से न तो उन्हे किसी फ़साद का डर था और ना किसी अनहोनी की चिंता। राग खमाज के भजन 'महादेव सुनी अब' को पूरे रास्ते गुनगुनाते जब वे नव नगर के क़रीब पहुंचे तो उन्हे कुछ लोगों ने रोक लिया। उन लोगों ने बड़े सहज तरीक़े से उस्ताद साब को अपनी तरफ़ बुलाया और फुसफुसा के उनसे कुछ बात करी। कुछ देर बाद उस्ताद साब, पंडित जी की ओर आए और उन्हे और डोडा को वापस अस्सी घाट जाने को कहा। डोडा के हिसाब से उन लोगों का व्यवहार न तो ग़ुस्सैल था और न लड़ाकू, फिर भी दौलत ख़ान साब की उस दिन के बाद से कोई ख़बर नहीं आई और ना पंडित जी ने कभी उस बात का ज़िक्र किसी से किया।

इस घटना के बाद गोलू के मन में बनारस के प्रति डर से ज़्यादा मायूसी का भाव बैठ गया। वाराणसी में होने वाले किसी भी फ़ैमिली फंक्शन में वो जाने से घबराता और कुछ बहाना देकर टाल दिया करता। विष्णु जी की रिकॉर्डिंग में आने से पहले भी उसे हल्की सी बेचैनी हो रही थी पर फिर रिकॉर्डिंग सेशंस ख़त्म करके उसने अस्सी घाट जाने का साहस जुटाया। डोडा और पंडित जी से मिलने का उसका मन तो था पर ये डर भी कि कहीं घटना का ज़िक्र पुरानी यादें न कुरेद दे इसलिए वो जाते ही नूरी ख़ाला से मिला। वैसे तो ख़ाला की नज़र कमज़ोर थी और इतने साल बीत जाने के बाद गोलू का पहचाना थोड़ा मुश्किल पर ख़ाला ने उसे देखते ही फ़ौरन गले लगा लिया। उनके साथ हुई बातचीत में गोलू को ये एहसास हुआ की दौलत ख़ान साब, उससे और उसकी कला से असीम प्रेम करते थे, इतना की उन्होंने उस घटना से एक दिन पहले ही नूरी ख़ाला को ये अनुदेश दिया कि "नूरी, हमारे पीछे से यहाँ केवल गोलू ही आए और कोई नहीं"।ये बात सुनकर गोलू को लगा की इतने साल बनारस ना आकर उसने ग़लत किया, वो किसी एक को बचा सकता था १ ख़ाला ने दौलत ख़ान साब की एक पुरानी तस्वीर उसे दी जो वो अपने साथ हमेशा रख सके। तस्वीर एक जवाँ दौलत ख़ान की थी।

दुकान के तब्दीली लॉज में गोलू ने रात बताई और वही कमरा लिया जो कभी उसका हुआ करता था। तस्वीर को देख वो अचम्भित भी था और दुखी भी। अचम्भित इसलिए क्योंकि उसके और जवाँ उस्ताद साब के व्यक्तित्व में समानताएँ थीं, और दुखी इसलिए क्योंकि उन समानताओं को वो इस उम्र में आकर देख पाया। तस्वीर के पीछे गोलू को 'आदम' का हस्ताक्षर मिला।'आदम - शुरुआत करने वाला', उस्ताद दौलत ख़ान साब का तख़ल्लुस था। वो उपनाम जिसके साथ वो अपने शुरुआती दिनों में स्टेज पे परफ़ॉर्म किया करते थे।

अगली रोज़ पौ फटने से पहले ही तानपुरे की आवाज़ ने गोलू को नींद से जगाया और अपने आप उसके क़दम ख़ान साब के कमरे की ओर बढ़ चले। वहाँ पहुँचा तो कमरे की चिटकनी खुली थी और बल्ब की रौशनी, दरवाज़े के देहलीज़ से फिसल के बहार ज़मीन पर पड़ रही थी। जैसे ही गोलू ने दरवाज़ा खोला तो देखा कि वही जवाँ दौलत ख़ान अपने तानपुरे की तरफ़ देख रहा था।


By Akshay Sharma





37 views0 comments

Recent Posts

See All

By Avinash Abhishek आज सुबह बालकनी में बैठा चाय की चुस्कियां लेते हुए अखबार के पन्ने पलट रहा था। मुझे चाय में शक्कर कुछ अधिक मालूम हुई लेकिन चुप रहना ही बेहतर था। चाय की जरा भी शिकायत हुई और देवी जी न

By Yashi Jalan The clock struck 10 minutes past 12 now and I stood by the small glass window with wooden frames, staring through the stillness of the dark forest. A dim yellow light was all the light

By Ananya Iyer “Hintaru, over here!” Okawa says with a vibrant voice. The day is only beginning and he and his brother have been at it outside for quite some time now. There are bamboo chutes everywhe

bottom of page