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शादी
By Dharam Singh Meena
शादी एक पवित्र बंधन हैं जिसमे मैं बंधने जा रहा था, और उसी रास्ते में मुझे कोई डर सता रहा था|
सोचु मैं क्या ये डर का अहसास सभी को होता हैं, बोले दोस्त पगले क्यूँ तू इतना ज्यादा सोचता हैं, ये अहसास हर किसी का अलग ही होता हैं|
जैसे जैसे ये पल नजदीक आता हैं, न जाने ये डर मेरे मन को क्यूँ और अधिक कुंठित सा कर जाता हैं|
इस घडी में पूरा परिवार खुशियों से झूम रहा था, मेरे मन में सिर्फ एक ही सवाल बार बार घूम रहा था|
दुल्हन कि तरह इस घर को सजाया जा रहा था, मुझे लगा क्या ये मेरा जनाजा उठाया जा रहा था|
अपनों के ही हाथो से क्यूँ मैं मारा जा रहा हूँ, नही थी उन्हें खबर कि मैं क्या चाह रहा हूँ, उन्हे देखकर मैं भी मुस्कुरा रहा हूँ, हैं वो कोनसा डर जो अपने से मैं छुपा रहा हूँ|
बारात चली घर के आँगन से क्यूँ मैं आगे बढने से कतरा रहा हूँ, ये डर का माहौल जो मेरे सीने में चल रहा हैं, इन्ही बातो से मेरा मन और ज्यादा घबरा रहा हूँ|
अब पहुँच गया हूँ अपनी अनचाही मंजिल पर, पर अभी भी मैं अंदर से थर थर काँप रहा हूँ,
हैं कोई ऐसा जो मुझे बता सके क्यों मैं अपने आपको फांसी के फंदे पर टांग रहा हूँ|
अब ले लिए हैं वचन और फेरे अगनी के सात, पर क्यूँ मैं अपने मन कि व्यथा किसी को समझा नहीं पा रहा हूँ, अपने दिल कि आवाज़ मैं अपने से ही क्यूँ छुपा रहा हूँ|
सात वचन लेके भी मैं अकेला ही इन वचनों को क्यूँ निभा रहा हूँ, हैं वो कोनसा डर जो मैं अपने से ही छुपा रहा हूँ|
कसमे वादे लिए थे साथ मेरे फिर क्यूँ किसी गैर को अपना बना रही हैं,जब प्यार ही नहीं करना था मुझसे तो फिर क्यों ये झूठी शादी रचा रही हैं|
हो गई हैं नफरत तुजसे फिर क्यों इस रिश्ते को बढ़ा रही हैं तोड़ दिए हैं बंधन तुझसे जिस दिन से तू किसी गैर को गले लगा रही हैं|
मेरी क्या गलती जो मुझे इतना सता रही हैं, नहीं करनी थी मोहब्बत तो ये झूठी शादी क्यूँ रचा रही हैं|
नफ़रत हो गई तुझसे जो तू ये कला मुझे दिखा रही हैं नहीं करनी थी मोहब्बत तो ये झूठी शादी क्यूँ रचा रही हैं|
तो ये झूठी शादी क्यूँ रचा रही हैं|
By Dharam Singh Meena