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विरह
By Utkarsh Mishra
विरह प्रेम की परम अवस्था है
शुद्ध और अलौकिक
मोह माया से परे प्रेम
प्रकाशित हो उठता है सूर्य की भाँति
और रौशन कर उठता है
समस्त संसार को
जैसे सीता के विरह में
जीत लिया था बनवासी राम ने
लंकापति दशानन को
जैसे हीर ओर रांझा का प्रेम
युगों तक जीवित है विरह अग्नि में
जैसे बिना मिलन की आस के भी
कान्हा के प्रेम में लिप्त थी जोगनिया
वैसे ही तुमने चुना विरह
अपने और करीब लाने को
तुम्हारा विरह छलावा था
मुझसे इकरार बढ़ाने को
तुम्हारे विरह से सीखा मैंने
कितना अधूरा हूँ तुम्हारे बिना
तुम्हारे विरह के काल से
मैं काबिल हुआ सशक्त हुआ
और बन बैठा महाकाल
पर ध्यान रखना यह अंतिम है
तुम्हें लौट कर आना पड़ेगा
इस विरह के सागर को
हमेशा के लिये सुखाने
मैं इस काबिल नहीं
जो संभाल सकूँ अकेले
इस अलौकिक प्रेम को।
By Utkarsh Mishra