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रविश
Updated: Jan 12
By Akshay Sharma
खोज में था मैं जिनकी वो बाग़ीचे मिले नहीं,
मिली रेगज़ार जमीं को ही हमने गुलज़ार कर लिया
बोए ख़्वाबों के सुर्ख़ फूल यहाँ,
सींचा बे-समरी मिट्टी को, महकी नस्लें जवाँ
चुभती मशक़्क़त पे हँसते दिन-रात बुल-बशर
फिर तकते हैरानी से देख मेरे जुनूँ का सेहर
खाद के मुरक्कब में थी हज़ारों मुरादें बिखरी पड़ीं,
उम्र के झरने से हर कोशिश को वो जीती रहीं
यहाँ से वहाँ जब सर उठाके देखा,
तो दूर...इसी बे-समरी मिटटी के जने गुलाब, गोशे-गोशे में महक रहे थे
‘कहीं वहदानियत की ख़ुशबू ढोते तो कहीं इन्सानियत के रिश्ते रँगते’
करने अपने फ़न का दीदार, मैंने बढ़ाए क़दम जमीं-कावी के बाहर,
बरसों से पकता हर ख़्याल...
मुझे सजा मिला कल्पना के पार।
गुलाब बिछी कफ़न में थे,
गुलाब फैली अमन में थे,
गुलाब ख़ामोश शेवन में थे,
गुलाब बतियाते जौबन में थे...
उम्मीद थे ये गुलाब, जैसे,
पतझड़ को मनाते बहार के ख़्वाब
चीखता स्वरुप ये गुलाब, जैसे,
बे-जां को बख़्शे हर मुमकिन जज़्बात
काल के बेहद ख़ास ये गुलाब, जैसे,
मुरली की बांसुरी से गूँजे हों अनन्त के राग
शहर-दर-शहर ज़बानी हुआ एक ही फ़साना,
ये गुलाब चुनते जीवन, बुनते ज़िन्दगी का ताना-बाना...
देख इन्हे लोग क़स्मे खाते, क़सीदे रचते,
रंग-ए-हसरत में ख़ूब खेलते, ख़ूब नहाते
गुल-बर्ग का नशा ईमान चढ़ा रहा था और ज़ेहन अन-देखे भँवर में फँसता जा रहा था...
वजह ठोस न थी पर वाह-वाही का जत्था, क़दमों को ढकेल वापस बगिये धाम ला रहा था...
वहाँ से यहाँ जब नज़र घुमा के देखा
तो हर तरफ़...इसी मिटटी में बिखरे फ़साने, आलम सुहाने,
इल्हाम में चूर दीवाने...
मिरी गुलज़ार ज़मीं को फिर रेगज़ार कर गए थे।
By Akshay Sharma