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बचपन
By Manu Singh
खिलखिलाता सा वो बचपन
ख़ुशियों से था वो भरा
रंगीन कपड़े पहन हम भी
रंगीन यादें रहे थे बना
ना कोई डर और ना कोई चिंता
बस खेलने में आता था मज़ा
एक सिक्का लेकर, इस तरह दौड़े दुकान पर
जैसे आज तो चमका देंगे, क़िस्मत उस दुकान पर
धीरे-धीरे बचपन में डर जैसे मिलने लगा
खुद पर विश्वास कम और ग़ुस्सा जैसे बढ़ रहा
कमज़ोर तो पहले से थे पर
अब और नाज़ुक हो गए
हर एक शक्स अब एक सा ही लग रहा
प्यार भी प्यार जैसा कहीं से ना लग रहा
सिलसिला एक बार में रुक जाता तो क्या बात थी
पर शायद पहले हमारे टूटने की बात थी
दुनिया आगे बढ़ गयी और वो बच्चा पीछे रह गया
रह गया वो भीड़ में, एकदम अकेली जान सा
लड़ रहा है
बढ़ रहा है
ज़िंदगी ख़त्म कहाँ है
आज भी अपना वो बचपन
जीने की कोशिश कर रहा।
By Manu Singh