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तलाश
By Utkarsh Mishra
जैसे प्रचंड तेज़ से बहती नदी
किनारे से मिलते ही
खोज लेती है अपनी स्थिरता
जैसे बनारस के घाट पर
स्वतः वास करते हैं वैरागी शिव
जैसे रिमझिम बरसात की हरियाली
चमका देती है कृषक का मुखमंडल
ठीक उसी प्रकार तुम ढूँढ़ लेना मुझे
और जकड़ लेना अपने आलिंगन में
बहुत दिन हुए कि अब अकेले
कठिन हो चला है सफर
मुझे भरोसा है कि तुम्हारा स्पर्श
बनारस में बहती गंगा जैसा
कोमल और निश्छल होगा
जो मेरे मन का अंधकार मिटा कर
ले आयेगा मुझे मोक्ष नगरी में वापस
मैं जानता हूँ अभी तुम्हें बरसने से डर लगता है
तुम्हें डर है कि तुम्हारी बारिश से तबाह ना हो जाये यह सृष्टि
यकीन मानो तुम्हारा मुझसे मिलना ही
अब खुशहाली का एकमात्र ज़रिया है
हम कितने तुच्छ है जो समझते है
कि प्रेम ज़रूरी है जीवन चलाने को
प्रेम तो आवश्यक है ठहराव के लिये
क्योंकि बिना ठहराव के बिखर जाता है मनुष्य
जैसे बिखर जाती है बिना नींव के ऊँची ऊँची इमारतें
हल्के - नाज़ुकझोंकोसे
By Utkarsh Mishra