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गंगा
By भारती बिंदु
तूँ गंगा ,मैं कौन प्रिये ?
बिन तेरे हम कैसे जिए !!
तूँ सहती बहती रहती
मैं घाट बाट जान दिये !!
तूँ गंगा गंगा सी अति पावन
दे दरस अमृत अथाह लिए !!
अपलक निहारूँ राह तेरी
मैं गुजरूँ पूल से मुँह सिये!!
तूँ धर्म कर्म में लिप्त सिक्त
मैं तृप्त चरणामृत बूँद पिये !!
तूँ निश्छल निर्मल प्रवाहवती
मैं पतित मँझधार पतवार छूवे!!
तूँ उन्मुक्त स्वच्छंद विचारधारा सी
मैं क्यूँ कुंठित व लाचार हिये !?
हो मिलन हमारा यदा तीव्र त्वरित
पुलकित प्रियतम बहे तूँ संग लिये !
गंगा और भक्त की प्रीत न झूठी
सत्य सनातन अविरल व अनूठी
गंगा गंगा सी गति है अति पावन
भक्त दरस अथाह आकुल धावन
गंगा धर्म कर्म मर्म में लिप्त सिक्त
भक्त चरणामृत ले हो जाय तृप्त
गंगा भक्त की पूरी कर हर आशा
होगी यही प्रेम की सच्ची परिभाषा
By भारती बिंदु