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काशी

By Srishti Gupta


मेरी साज़ ग़ज़ल ये काशी है

वरुणा की फजल ये काशी है

हर गली मोहल्ले कूचे की

हर पतंग चाय चबूतें की

उड़ती ये नज़ल  भी काशी है

जो कहें अस्सी वो काशी है

है अनन्त कहानी इस नगरी की

कैसे किस्सों में बात करूं?

कहते तो सुबह- ए- बनारस हो

तो इतनी जल्दी क्यूं सांझ करूं?

गंगा के घाटों पर बैठा 

सोचा जो कहानी इक लिख दूं

मैं तो बन बैठा वो किस्सा

जो भूले से भी न याद आए

इठलाती हसीं है काशी की 

गीली मिट्टी के फांकों सी,

जहां असीं का दाम़न पकड़े पकड़े 

पन्नों में कहां लिख जाएं



जहां उड़ती हुई चिताओं में

भस्मों की  ऱवानी लिख जाए

कहीं साज़ उठे ,कहीं सुबह पहर

गंगा की गोतें अम्बर से

कभी कहें पवन से ये मधुरम्

चल गंगा में आंखे़ अब खोलें

सुर्ख़ो के रंगों में लिपटी

हर लहर दिलाती आशा है

हर अंदाज नज़ाकत हो जाएं

जहां सांझ ,सवेरा दिखाता है

जहां रंगों की होली सब खेलें

भ़स्मों की तो बस काशी में,

कर लेते हैं सारी इच्छाएं पूरी

पर अन्तिम तो बस काशी में।


By Srishti Gupta




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Siya Gupta
Siya Gupta
Jan 10, 2024
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