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उलझन

By Yakshita Gawan


वो बातों की डोर

उभरा हुआ उस पत्ते का छोर

क्यों गुम सा गया है ?

सब कुछ क्यों सिमट सा गया है


ये वक्त क्यों थम सा गया है

वो बातों का सिलसिला क्यों रुक सा गया है

क्या ये वक्त बदलने का नजारा है

या गुजरे हुए वक्त का सहारा है?


ये दुनिया क्यों अनजान - सी लगने लगी है

हर अपना क्यों बेगाना - सा लगने लगा है

क्या यह बदलाव की वजह है या

मेरा सोचना ही ये बेवजह है ?





वो हर पसंद की चीज

क्यों अब ना पसंद है ?

वो बहते हुए पानी में पत्थर मारना

क्यों अब खुश होने की वजह नही है ?


क्यों हंसना भूल गई हूं मै

जिंदगी में हंसी गायब सी हो गई है,

ये जिंदगी मेरी उदासी की

क्यों कायल सी हो गई है ?


क्यों ये जिंदगी वीरान - सी लगने लगीं है

जान नही पा रहीं हूं , मैं अभी तक

आखिर ये उलझन क्यों है ?



By Yakshita Gawan




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