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इश्क़
By Mayank Joshi
मुकम्मल ना सही, मगर पाक सा रेहता था इश्क़,
राधा के साथ, तब कान्हा सा रेहता था इश्क़,
दर्श प्यासी मीरा की, जब पीर पढ़ी तो जाने है,
राणा के भेजे प्याले मे, तब अमृत सा रेहता था इश्क़।
श्री राम, महेल जब त्यागे थे, तब साथ, माँ सिया सा रेहता था इश्क़,
सूपर्णखा की जब नाक कटी, तब लक्ष्मण की मर्यादा सा रेहता था इश्क़,
द्वापर हो या त्रेता, युग मायने नहीं रखता,
जिस्म की ज़रूरत से बढ़कर, तब एहसास और दिल मे रेहता था इश्क़।
धीरे_धीरे वक़्त बीता, चेहरे सारे बे_नक़ाब होने लगे,
कलयुग मे आज, रिश्ते_नाते सब खराब होने लगे,
आज कहीँ अदाकारियाँ हो रही है, तो कहीँ जिस्म की नुमाईश हो रही है,
इश्क़ कहाँ है जनाब, यहाँ तो बस एक दुसरे की आजमाईश हो रही है।
सिसक_सिसक कर अब रोता रेहता है इश्क़,
रात भर, अब परेशान रेहता है इश्क़,
आई होगी याद, आज फिर किसी चर्चे या किसी किस्से की,
नींद नही आती, अब तो बस करवटों मे रेहता है इश्क़।
By Mayank Joshi