By Suniti Sahoo
कई आरजूओं को आँखों में सिमटते देखा है
और कुछ दिल में छुपाते देखा है
कई आरजूओं को होठों में दबते देखा है
और कुछ को मन में तोड़ते देखा है
वो दर्द बयाँ करता तो कैसे करता
वो खुद उसके आरजू को मरते देखा है
वो बचपन से हाथ में किताब नहीं
लकड़ी की गांठ देखा है
अपने सर पर बुजुर्गों का हाथ नहीं
जिम्मेदारियों का बोझ देखा है
वो पंख फैलाता तो कैसे फैलाता
वो खुद अपने आरजूओं को राख होते देखा है
By Suniti Sahoo
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