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स्वप्न करें इंकार

By Usha Lal दिन भर बतियाती रहती थीं, डाल सदा गलबहिंयाँ ! हमजोली थीं इक दूजे की स्वप्न , नींद और अँखियाँ ! दिन थे भरे लड़कपन से , और रातें जादूनगरी! हम तिलिस्म में खो जाते थे, तान स्वप्न की छतरी ! उम्र बढ़ी ज्यूँ ज्यूँ इस तन की, मन हो गया पराया! सुन्दर और रेशमी सपने कहाँ गँवा मैं आया ? सतरंगी जो स्वप्न बुने थे, सब बन गये अवांछित, कुछ जो थोड़े पनप गये थे, वे भी हुये अपरिचित !

कुछ पलकों से फिसल गये , भर मन में एक विषाद्! किर्च बचीं जो शेष , आज भी फैलाती अवसाद! जिनको भी मैं मूर्त रूप दे, कर पाया साकार! वे भी पूरा होते ही , क्यूँ खो बैठे चमकार ? अब पलकें हैं बोझिल, जो ना मुँदने को तैयार, और अगर निद्रा तिर आये, स्वप्न करें इन्कार!!


By Usha Lal



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