By Avaneesh Singh Rathore
अंदर सिसकियां बेहिसाब
अंदर चीखें बेहिसाब
ऊपर से पर शांत मन
कान लगा सुन ले सैलाब
घुट घुट जीता राही मैं
पल पल मरता राही मैं
मंजिल कई तलाश है एक
पग पग हारा राही मैं
सुनते सुनते सब रोते हैं
किस्से मेरे जब होते हैं
कहते कहते चुप हो जाता मैं
भाव मेरे तब कहते हैं
भाप सी उड़ गई है नींद
ओस सी मजबूत लकीर
पत्थर जैसा दिल लेकर
नीर जैसी काया फकीर
कहने सुनने में क्या रक्खा है
ढह गई दीवारें उम्मीदों की
बात बिगड़ती चली गई
झुक जाने में क्या रक्खा है
सही गलत की होड़ नहीं
अच्छे बुरे की बात नहीं
हुई गलती तो क्या बोलूं
माफ करने में क्या रक्खा है
एक कहानी अमर हुई
कलम कहीं नीलाम हुई
हम भी लिख दे एक कहानी
बिक जाने में क्या रक्खा है
दहशत वाली बात हुई
जब हिसाब किताब से शुरू हुई
जब बंटवारे की नौबत है
तो हिस्से लेकर क्या रक्खा है
मेरे हिस्से में क्या रक्खा है
एक तेरी यादों के सिवा
तुझे उसमे भी दिखा प्यार नहीं
तो मुझमें भी फिर क्या रक्खा है
हिज्र हिज्र कहते थे जब
डांट डपट कर चुप हुए
अब कसमें वादे की कीमत क्या
जब रिश्ते ही नीलाम हुए
हमसे छुपता न प्रेम सदा
न हमसे छुपेगा फरेब सदा
एक गैर मुसाफिर खातिर
तुमने हमसे ही फिर झूठ कहा
By Avaneesh Singh Rathore
留言