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शास्त्रार्थ

By Amol Mishra


सवाल ही तो उठ रहे

कि 'आप ' पर या आप में?

जो स्तब्ध है अब यहाँ, तेरा

वो स्वार्थ है या परमार्थ है ?

फिर

रुके जो तुम तो छाँव है,

चले जो तुम तो ताप है,

जो बढ रहा है यहाँ, तेरा

वो विराम है या विकास है?


आग ही तो लग रही

कि ध्येय में या देह में?

जो जल रहा यहाँ तेरा,

वो विश्वास है या श्वास है?

फिर

उठे जो तुम तो प्राःत है,

झुके जो तुम तो रात है,

जो जग रहा यहाँ तेरा,

वो स्वप्न है या साध्य है?





तूफां ही तो आ रहे

कि विचार में या आचार में?

जो लङता हवाओं से यहाँ तेरा,

वो संवाद

या

खुद से ही शास्त्रार्थ है?



फिर

बुने जो शब्द तो तर्क है,

बिखरे जो तर्क तो हार है,

जो जीत रहा है यहाँ तेरा,

" कुछ करने " का अहसास है।


.........बस, इतनी सी ही बात हैI



By Amol Mishra




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