शहर और गाँव
- Hashtag Kalakar
- Aug 16
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By Anant Srivastav
शहर हमेशा से रहा पूंजीवादी,
ईंटों की तरह गढ़ा गया है यहाँ हर रिश्ता,
यहाँ कीमत है समय की, साँसों की भी,
और दोस्ती भी लाभ में तौली जाती है।
यहाँ इमारतें ऊँची हैं,
पर दिलों की खिड़कियाँ बंद हैं,
हर चेहरा भागता है,
क्योंकि रुकना घाटे का सौदा बन गया है,
शहर की गलियों में रफ़्तार है,
पर अकेलापन भी उसी तेज़ी से दौड़ता है।
जबकि गाँवों की नींव आज भी समाजवाद है,
जहाँ चूल्हे एक के बुझने पर
सारा मोहल्ला साथ बैठता है,
जहाँ किसी की गाय खो जाए
तो पूरे गाँव की चिंता हो जाती है।
जहाँ एक की ख़ुशी सबकी होती है,
और दुःख बाँटने के लिए
दरवाज़े बिना दस्तक के खुल जाते हैं।
यहाँ रिश्ता पैसों से नहीं,
पकाई गई रोटियों और बाँटे गए दु:खों से होता है,
यहाँ ‘हम’ अब भी ‘मैं’ से बड़ा है,
और खेतों की मिट्टी में भरोसा उगता है।
वहीं गाँव की पगडंडी पर समय ठहरता है,
क्योंकि वहाँ ज़िंदगी को जीते हैं,
बिताते नहीं।
शहर में जहाँ चाय भी कैफे में बिकती है,
गाँव में वो चूल्हे की आँच पर
बिना माँगे मिल जाती है,
शहर में जहाँ पड़ोसी का नाम भी
कई बार नहीं पता होता,
गाँव में किसी की खाँसी भी
सबको सुनाई देती है।
एक अजीब दौड़ है शहर में,
और एक ठहराव है गाँव में,
एक सपनों का बाज़ार है वहाँ,
यहाँ ज़मीन से जुड़ा सच।
शहर पूँजीवाद का प्रतीक है,
जहाँ हर कदम पर स्पर्धा है,
पर गाँव... समाजवाद का,
शहर हमेशा से रहा पूंजीवादी,
पर गाँव — वो अब भी उम्मीद की आख़िरी पंक्ति है,
जहाँ इंसानियत अभी भी खेतों की तरह हरी-भरी है।
जहां ठहराव में आज भी अपनापन बसता है।
और रिश्ते... दिल से निभाए जाते हैं।
By Anant Srivastav

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