By Praveen Bhardwaj
बचपन की गलियों में
निकलते थे जब हम
बाहें फटकारते हुए,
दुनिया पैरों के नीचे
एक खेल का मैदान थी
सभी गलियां
घूमती-घामती
आपस में जुड़ती
पूरी दुनिया
घुमा देती थीं
सभी सड़कें हमसे
शुरु होती थीं
और जाने कहाँ
ले जाकर छोड़ती थीं?— और यह एक
बहुत बड़े रहस्य की बात थी
नुक्कड़ के घर में
रहने वाली दादी
के चेहरे की झुर्रियों में
पाठशाला तक का
सारा रास्ता साफ दिखायी देता था
उसके उस तरफ
वाले घर में हर
बरस एक नया बच्चा जाने कहां से
आ जाता था?
गली के दूसरे छोर पर
झाड़ू बुहारती थी
एक सुंदर लड़की
जिसके घर में
एक बड़ा सा नीम का पेड़ था
आषाढ़ की बरसात में
गलियों में जब
परनालों में बहता था पानी,
बहुत सी
कागज़ी नावें बना कर
भगाते थे –
‘आज तो सारे समुंदर
नाप कर ही मानेंगे!’
सांझ को डूबता था
सूरज, और गली
में झुट्पुटा होने लगता
था,
उस मटमैले धुंधलके में
यहां वहां डोलने
का अलग ही
रोमांच था!
रात को छत पर
लेटते जब सोने को
और नींद का इंतज़ार
करते थे
ऊपर से कोई खोया हुआ
पक्षी निकल जाता
टेरता हुआ,
हाथ जोड़ कर प्रार्थना
करते,
‘इसे इसकी माँ से मिलवा देना भगवान जी!’
स्मृतियों, आकांक्षओं को
सुलाती हुई आ जाती
थी निद्रा जब,
बड़ी बेसब्री से
गोता लगाते थे
एक और नए और
रोमांचक दिन
में आँखें खोलने
के लिये!
By Praveen Bhardwaj
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