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रुलाई
By Vikas Rajoriya
ख़ामोशी इस शहर की काटने को दौड़ती है,
पीपनी बाजे वाले की सुनाई ही नहीं देती है
शोर में भी सुकून था एक इस पथरीले दश्त में,
बशर की अर्जी है कुछ मोजिज़ा तुर्बत की,
लेकिन हसरत-ए-खल्वत मुश्त-ऐ-खाक हो जाती है !
गम-ए-गुसार का फलसफा मक्दुर क्या जाने
छनकती पायल अब पहनाई नहीं जाती
और कितने दिन है बाकी बज़्म-ए-यारां की रिफाक़त में
की रुलाई भी अब अकेले सुनाई नहीं जाती है !!
By Vikas Rajoriya