मुलायम मर्द
- Hashtag Kalakar
- Oct 25
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By Akshay Khandekar
इक खातून की कलम से,
कभी हौले गूंजते स्वर मद्धम से,
अचानक मिल जाते हैं भीड़ में,
पुख़्ता मर्द कुछ मुलायम से!
वैसे तो शर्मीले से,
घुलें मिलें तो बड़बोले से,
मासूमियत अलग ही दिखती इनमें,
पत्थर दिखते हैं पर मोम से!
समाज के दुभंग से,
समझदारी से स्तंभ से,
न जाने क्या कुछ लिए अंतर में,
संथ रहते समंदर से!
अडिग एक विश्वास से,
सब देखते दृष्टा के भाव से,
दक्ष भी कर्तव्य पालन में,
अस्तित्व में श्वास से!
ढांचे में बिगाड़ से,
आम होके भी खराब से,
आंखों में झलकते जज़्बात में,
हसीन, सुंदर, मुलायम मर्द;
हक़ीक़त भी और कुछ ख्वाब से!
By Akshay Khandekar

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